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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(अङ्गस्य) अङ्ग-सम्बन्धी (अचाम्) अचों में से (आदे:) आदि के (अच:) अच् के स्थान में (तद्धिते) तद्धित-संज्ञक (किति) कित् प्रत्यय परे होने पर (वृद्धि:) वृद्धि होती है।
उदा०-'नडादिभ्यः फक' (४।१।९९) नाडायन: । नड का पौत्र। चारायणः । चर का पौत्र। 'प्राग्वहतेष्ठक्' (४।४।१) आक्षिकः । अक्ष नामक पाशों से खेलनेवाला जुआरी। शालाकिकः । शलाका नामक पाशों से खेलनेवाला जुआरी।
सिद्धि-नाडायनः । यहां नड' शब्द से नडादिभ्यः फक्' (४।१।९९) से गोत्रापत्य अर्थ में 'फक्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इस फक् प्रत्यय के कित्' होने से नड' के आदिम अच् को वृद्धि (आ) होती है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'फ्' के स्थान में 'आयन्' आदेश है। 'चर' शब्द से-चारायणः।
(२) आक्षिकः । यहां 'अक्ष' शब्द से तेन दीव्यति खनति जयति जितम् (४।४।२) से दीव्यति-अर्थ में प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७।३।५०) से ' के स्थान में 'इक्' आदेश होता है। 'शलाका' शब्द से-शालाकिकः।
।। इति पूर्ववृद्धिप्रकरण ।।
इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचने
सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः।
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