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सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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आर्यभाषाः अर्थ- (रुदादिभ्यः) रुद-आदि (पञ्चभ्यः) पांच (अङ्गेभ्यः) अगों से परे (वलादे: ) वलादि (सार्वधातुकस्य) सार्वधातुक-संज्ञक प्रत्यय को (इट) इडागम होता है। - ( रुद् ) स रोदिति । वह रोता है । (स्वप ) स स्वपिति । वह सोता है। ( श्वस) स श्वसिति । वह श्वास लेता है। (अन) स प्राणिति । वह प्राण लेता है। ( जक्ष ) स जक्षिति | वह खाता / हंसता है ।
उदा०
सिद्धि - (१) रोदिति । यहां 'रुदिर अश्रुविमोचने' (अदा०प०) धातु से 'वर्तमाने लट्' (३ / २ /१२३) से 'लट्' प्रत्यय और 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में सार्वधातुक 'तिप्' आदेश है। इस सत्र से इसे इडागम होता है। ऐसे ही 'ञिष्वप शयें' ( अदा०प०) आदि धातुओं से स्वपिति आदि पद सिद्ध करें ।
(२) प्राणिति । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'अन च (प्राणने }' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लट्' प्रत्यय है । 'अनितेरन्तः' (८ । ४ । १९ ) से नकार को णत्व होता है ।
इडागमः
(४३) ईशः से । ७७ ।
प०वि० - ईशः ५ ।१ से ६ । १ ( लुप्तषष्ठीकं पदम् ) । अनु०-अङ्गस्य, इट्, सार्वधातुके इति चानुवर्तते । अन्वयः-ईशोऽङ्गात् सार्वधातुकस्य सेरिट् ।
अर्थ:- ईशोऽङ्गात् उत्तरस्य सार्वधातुकस्य से - प्रत्ययस्य इडागमो
भवति ।
उदा०-त्वम् ईशिषे । त्वम् ईशिष्व ।
आर्यभाषाः अर्थ- (ईश:) ईश् इस (अङ्गात्) अङ्ग से परे (सार्वधातुकस्य ) सार्वधातुक - संज्ञक (से) से - प्रत्यय को (इट) इडागम होता है।
उदा० -त्वम् ईशिषे । तू ईश्वर (स्वामी) होता है । त्वम् ईशिष्व । तू ईश्वर (स्वामी) हो।
सिद्धि - (१) ईशिषे । यहां 'ईश ऐश्वर्ये' (अदा०आ०) धातु से 'वर्तमाने लट्' (३ / २ /१२३) से 'लट्' प्रत्यय और तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'थास्' आदेश और 'थास: से' ( ३/४ 1८० ) से थास् के स्थान में 'से' आदेश है। इस सूत्र से इस सार्वधातुक 'से' प्रत्यय को इडांगम होता है।
(२) ईशिष्व । यहां पूर्वोक्त 'ईश्' धातु से 'लोट् च' ( ३ | ३ | १६२ ) से लोट्' प्रत्यय है। 'सवाभ्यां वामौ ( ३ | ४ |९१ ) से से' के एकार को वकार आदेश होता है। 'एकदेशविकृतमनन्यवद् भवति' इस परिभाषा के बल से 'स्व' को भी 'से' मानकर इस सूत्र से इसे इडागम होता है। 'आदेशप्रत्यययो:' ( ८1३1५९) से षत्व होता है।
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