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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
उदा०- - (ऋकारान्त) स करिष्यति । वह करेगा । स हरिष्यति । वह हरण करेगा । (हन् ) स हनिष्यति । वह हिंसा / गति करेगा ।
सिद्धि-करिष्यति। यहां ऋकारान्त 'डुकृञ् करणें' (तना० उ०) धातु से 'लृट् शेषे च' (३ | ३ |१०) से 'स्य' विकरण-प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे इडागम होता है। इस 'कृ' और 'हन्' धातु के अनुदात्त होने से 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात् (७।२1१०) से इट् का प्रतिषेध प्राप्त था, अतः इस सूत्र से इडागम का विधान किया गया है।
ऐसे ही 'हृञ् हरणे' (भ्वा० उ०) धातु से - हरिष्यति । 'हन हिंसागत्योः' (अदा०प०) धातु से हनिष्यति ।
इडागमः
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(३७) अञ्चेः सिचि । ७१ । प०वि०-अञ्चेः ५ ।१ सिचि ७ ।१ (षष्ठ्यर्थे ) । अनु० - अङ्गस्य, इडिति चानुवर्तते । अन्वयः - अजेरङ्गात् सिच इट् ।
अर्थ :- अञ्जरङ्गाद् उत्तरस्य सिच इडागमो भवति । उदा० स आञ्जीत् । तौ आञ्जिष्टाम् । ते आञ्जिषुः ।
आर्यभाषाः अर्थ- ( अञ्जे) अञ्जि इस (अङ्गात् ) अङ्ग से परे (सिचः ) सिच् प्रत्यय को (इट्) इडागम होता है।
उदा०-स आञ्जीत् । वह प्रकाशित हुआ। तौ आञ्जिष्टाम् । वे दोनों प्रकाशित हुये । ते आञ्जिषुः । वे सब प्रकाशित हुये ।
सिद्धि- आञ्जीत् । अञ्ज्+लुङ् । आट्+अ+ल्। आ+अ+ब्लि+ल् । आ+अञ्ज्+सिच्+तिप्। आ+अञ्ज् स्+त्। आ+अञ्ज्+इट्+स्+ईट्+त्। आ+अ+इ+ ०+ई +त् | आञ्जीत् ।
यहां 'अञ्जु व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु' (रुधा०प०) से 'लुङ्' प्रत्यय और 'च्लि' के स्थान में 'सिच्' आदेश है। इस सूत्र से इसे इडागम होता है । 'अस्तिसिचोऽपृक्ते (७/३/९६ ) से ईट् आगम होकर 'इट ईटि' (८/२/२) से 'सिच्' का लोप हो जाता है। ऐसे ही द्विवचन और बहुवचन में- आञ्जिष्टाम्, आञ्जिषुः ।
'अञ्जु' धातु के ऊदित होने से 'स्वरतिसूतिसूयतिधूञूदितो वा' (७।२।४४) से विकल्प से इडागम प्राप्त था, इस सूत्र से 'सिच्' को नित्य इडागम होता है।
विशेष : 'अ' धातु का जाना, साफ करना, स्वच्छ करना, सराहना, विख्यात करना, चमकना, प्रकाशित होना तैल मर्दन करना, अभ्यञ्जन करना संवारना, सजाना आदि अर्थों में प्रयोग होता है।
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