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सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः अनु०-अङ्गस्य, इट, वसुरिति चानुवर्तते।
अर्थ:-वेदे सनिससनिवांसम् इति पदं निपात्यते, सनिम्-पूर्वात् सनोते: सनतेर्वाऽङ्गाद् उत्तरस्य वसोरिडागम एत्त्वमभ्यासलोपाभावश्च निपात्यते इत्यर्थः।
उदा०-आजिं त्वाग्ने०सनिससनिवांसम् (मा०श्रौ० १।३।४।२) ।
आर्यभाषा: अर्थ- (सनिससनिवासम्) सनिससनिवांसम् यह पद निपातित है, अर्थात् सनिम्-पूर्वक सनोति अथवा सनति (अङ्गात्) अझ से परे (वसो:) वसु प्रत्यय को (इट) इडागम और एत्त्व तथा अभ्यासलोप का अभाव निपातित है।
उदा०-आजि त्वाग्नेप्सनिससनिवांसम् (मा० औ० ११३६४१२) सनि:-अर्चा, पूजन, नैवेद्य, भेंट (जरको०)। ससनिवांसम् । दान करनेवाले को/सेवा करनेवाले को।
सिद्धि-सानेवांसम् । यहाँ पणु दाने' अथवा 'षण सम्भक्तौ (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लिट्' और इसके स्थान में 'क्वसु' आदेश है। इस सूत्र से 'वसु' को इडागम और एत्त्व तथा अभ्यास-लोप का अभाव निपातित है। यह द्वितीया-एकवचनान्त पद है।
विशेष: 'सनिससनिवासम्' इन पदों की नियतानुपूर्वी को देखकर यह माना जाता है कि यह निपातन वैदिक है, क्योंकि पदों की नियतानुर्वी वेद में ही होती है, भाषा में नहीं। भाषा में सेनिवांसम्' प्रयोग होता है।
इडागमः
(३६) ऋद्धनोः रये।७०। प०वि०-ऋत्-हनो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे ) स्ये ७।१ (षष्ठ्यर्थे)।
स०-ऋच्च हन् च तौ ऋद्धनौ, तयो:-ऋद्धनो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-अङ्गस्य, इडिति चानुवर्तते। अन्वय:-ऋद्धनिभ्याम् अङ्गाभ्यां स्यस्य इट् ।
अर्थ:-ऋकारान्ताद् हन्तेश्चाऽगाद् उत्तरस्य स्यप्रत्ययस्य इडागमो भवति।
उदा०-(ऋकारान्त:) स करिष्यति, स हरिष्यति। (हन्) स हनिष्यति।
आर्यभाषा: अर्थ-(अद्धनिभ्याम्) ऋकारान्त और हन्ति इन (अङ्गाभ्याम्) अगों से परे (स्यस्य) स्य-प्रत्यय को (इट) इडागम होता है।
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