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सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
(२) कल्प्स्यति। यहां पूर्वोक्त कृप्' धातु से 'लृट् शेषे च' (३1३ 1१३) से लृट्' प्रत्यय और 'स्यतासी लृलुटोः' (३ 1१1३३) से 'स्य' विकरण- प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) अकल्प्स्यत् । यहां पूर्वोक्त 'कृप्' धातु से 'लिनिमित्ते लृङ् क्रियातिपत्तों (३।३।१३९) से 'लृङ्' प्रत्यय और 'स्वतासी लृलुटोः' (३ 1१1३३) से स्थ' विकरण-प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(४) चिक्लृप्सति । यहां पूर्वोक्त 'कृप्' धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३ 1१1७ ) से इच्छार्थ में 'सन्' प्रत्यय है। यह 'हलन्ताच्च' (२ /२ 1१०) से किद्वत् होता है अतः प्राप्त लघूपध गुण का 'क्ङिति चं' ( 81914) से प्रतिषेध होता है। 'कृपो रो ल:' (८ 1२1१८) से कृप्' धातु के ऋकारस्थ रेफांश को लकार आदेश होता है। कृप्=क्ल्ऋप्=क्लृप्। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
इडागम-प्रतिषेधः–
(२७) अचस्तास्वत् थल्यनिटो नित्यम् । ६१ । प०वि० - अच: ५ ।१ तास्वत् १ । १ थलि ७ ११ अनिट: ५ ।१ नित्यम् १।१ ।
तद्धितवृद्धि: - तासाविव इति तासवत् 'तत्र तस्येव' (५ । १ । ११५ ) इत्यनेन सप्तम्यर्थे वतिः प्रत्ययः ।
स०-न विद्यते इड् यस्य स: अनिट् तस्मात् - अनिट : ( बहुव्रीहि: ) । अनु०-अङ्गस्य, इट्, न। उत्तरसूत्राद् 'उपदेशे' इत्यनुकर्षणीयम् । अन्वयः-उपदेशेऽचस्तासवन्नित्यमनिटः, तासवत् थल इड् न । अर्थ:- उपदेशे येऽजन्ता धातवः, तासौ नित्यमनिटः तेभ्यस्तास्वत् थल इडागमो न भवति ।
उदा०
- (या) याता - ययाथ । ( चि) चेता - चिचेथ । (नी) नेतानिनेथ। (हु) होता-जुहोथ ।
आर्यभाषाः अर्थ- (उपदेशे) पाणिनीय धातुपाठ के उपदेश में जो (अच: ) अजन्त धातु (तास्वत्) तासि प्रत्यय परे होने पर ( नित्यम् - अनिटः ) नित्य-अनिट् हैं. उनसे परे (तास्वत् ) तास् प्रत्यय के समान (थल: ) धल् प्रत्यय को (इट) इडागम (न) नहीं होता है।
उदा०- (या) याता - ययाथ । तूने पहुंचाया। (चि) चेता- विचेथ । तूने चयन किया। (नी) नेता-निनेथ । तूने पहुंचाया। (हु) होता - जुहोथ । तूने यज्ञ किया ।
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