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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) वय॑ति । यहां तु वर्तने (भ्वा०आ०) से लृट् शेषे च' (३।३।१३) से तृट्' प्रत्यय और 'स्यतासी लुलुटो:' (३।१।३३) 'स्य' विकरण-प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे इडागम नहीं होता है। वृद्भ्य: स्यसनो:' (१।३।९२) से परस्मैपद होता है।
(२) अवय॑त् । यहां पूर्वोक्त वृतु' धातु से लिनिमित्ते लुङ् क्रियातिपत्तौं (३।३।१३९) से लुङ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) वितृत्सति । यहां पूर्वोक्त वृतु' धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।११७) से इच्छा अर्थ में सन्' प्रत्यय है।
ऐसे ही वधु वृद्धौ' आदि धातुओं से शेष पदों की सिद्धि करें। . इडागम-प्रतिषेधः
(२६) तासि च क्लृपः।६०। प०वि०-तासि ७१ च अव्ययपदम्, क्लृप: ५।१।
अनु०-अङ्गस्य, आर्धधातुकस्य, से, इट्, परस्मैपदेषु, न इति चानुवर्तते।
अन्वय:-क्लृपोऽङ्गात् तासे: सस्य चार्धधातुकस्य परस्मैपदेषु इड् न।
अर्थ:-क्लृपोऽगाद् उत्तरस्य तासे: सकारादेश्चाऽऽर्धधातुकस्य परस्मैपदेषु परत इडागमो न भवति।
उदा०- (तास्) स श्व: कल्प्ता। (सकारादि:) कल्प्स्यति । अकल्प्स्यत्। चिक्लृप्सति ।
आर्यभाषा: अर्थ- (क्लृपः) क्लप इस (अमात्) अङ्ग से परे (तासे:) तासि (च) और (सत्य) सकारादि (आर्धधातुकस्य) आर्धधातुक प्रत्यय को (परस्मैपदेषु) परस्मैपद-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर (इट) इडागम (न) नहीं होता है।
उदा०-(तसि) स श्व: कल्प्ता। वह कल समर्थ होगा। (सकारादि) कल्प्स्यति । वह समर्थ होगा। अकल्प्स्यत् । यदि वह समर्थ होता। चिक्लृप्सति। वह समर्थ होना चाहता है।
सिद्धि- (१) कल्प्ता । यहां कृपू सामर्थे' (भ्वा०आ०) धातु से 'अनद्यतने लुट्' (३।३।१५) से 'लुट' प्रत्यय और स्यतासी ललटो:' (३।१।३३) से तासि' विकरण-प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे इडागम नहीं होता है। कृस्' धातु को 'पुगन्तलघूपधस्य च (७ ॥३॥८५) से लघूपध गुण होकर कृपो रो ल: (८१२।१८) से रेफ को लकारादेश होता है। कृप-कर-कता। तुटि व स्मृपः' (१।३।९३) से परस्मैपद होता है।
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