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सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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सिद्धि-लुभित्वा । यहां 'लुभ विमोहनें' (तु०प०) धातु से पूर्ववत् 'कत्वा' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे इडागम होता है। 'रलो व्यपधाद्हलादे: सँश्च ( १/२/२६ ) से सेट् क्त्वा प्रत्यय के किवत् होने से 'क्ङिति च ' (१1१14 ) से गुण का प्रतिषेध होता है। विकल्प - पक्ष में लघूपध गुण होता है लोभित्त्वा । ऐसे ही निष्ठा में विलुभिताः केशाः इत्यादि ।
'क्त्वा' प्रत्यय में 'तीषसहलुभरुषरिषः' (७।२।४८ ) से विकल्प से इडागम प्राप्त था और निष्ठा में 'यस्य विभाषा' (७/२/१५ ) से इडागम का प्रतिषेध प्राप्त था, अतः इस सूत्र से नित्य इडागम का विधान किया गया है।
इडागम:
(२१) नृव्रश्च्यो: क्त्वि । ५५ ।
प०वि० - जृ - ब्रश्च्यो: ६ | २ ( पञ्चम्यर्थे ) क्त्वि ७।१। स०- नृरच व्रश्चिश्च तौ नृव्रश्ची, तयो:- जृव्रश्च्यो: ( इतरेतर - योगद्वन्द्वः) ।
अनु० - अङ्गस्य, आर्धधातुकरय, वलादेः, इडिति चानुवर्तते । अन्वयः-नृवृश्चिभ्यामड्गाभ्यां वलादेरार्धधातुकस्य क्त्व इट् ।
अर्थ:-नृव्रश्चिभ्यामङ्गाभ्याम् उत्तरस्य वलादेरार्धधातुकस्य क्त्वाप्रत्ययस्य इडागमो भवति ।
उदा०- (ज) जरित्वा, जरीत्वा । ( वश्चि: ) व्रश्चित्वा ।
आर्यभाषाः अर्थ- ( जुव्रश्विभ्याम्) जू. व्रश्चि इन (अङ्गाभ्याम्) अङ्गों से
परे (वलादे: ) बलादि (आर्धधातुकस्य) आर्धधातुक (क्त्व) क्त्वा प्रत्यय को (इट) इडागम
होता है।
उदा०- ( ) जरित्वा, जरीत्वा । जीर्ण (वृद्ध) होकर । ( ब्रश्चि) व्रश्चित्वा ।
काटकर ।
सिद्धि - (१) जरित्वा । यहां 'मॄ वयोहानौं' ( चु०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त्वा' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे इडागम होता है। 'वृतो वा' (७/२/३५ ) से इडागम को विकल्प से दीर्घ होता है- जरीत्वा । 'आधृषाद्वा' (चु॰गणसूत्र) से 'जू' धातु को विकल्प से णिच्' प्रत्यय होता है । अतः णिच्' प्रत्यय नहीं है।
(२) जरित्वा । ' ओव्रश्चू छेदने (तु०प०) धातु से पूर्ववत् क्त्वा' प्रत्यय है । 'नक्त्वा सेट्' ( १/२ 1१८ ) से 'क्त्वा' प्रत्यय के कित न होने से 'प्रहिज्यावयि०' ( ६ । १ । १६ ) से ब्रश्च' को सम्प्रसारण नहीं है।
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