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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-घुष्टा रज्जुः । वह रज्जु-रस्सी निजू) जिसकी लड़े घुटकर एकाकार हो गई हैं, घिसी हुई रस्सी। घुष्टौ पादौ । रगड़कर धोये हुये पैर। घिसे हुये पांव।
सिद्धि-घुष्टा । घुष्+क्त । घुष्+त। घुष्+ट । घुष्ट+टाप् । घुष्टा+सु। घुष्टा+० ।
घुष्टा।
यहां घुषिरविशब्दने (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से अविशब्दने-अर्थ में इडागम का प्रतिषेध होता है। 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से तकार को टवर्ग टकार होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'अजाद्यतष्टाप्' (४।१।४) से टाप्' प्रत्यय है। ऐसे ही-घुष्टौ पादौ। इट्-प्रतिषेधः
(१७) अर्देः सन्निविभ्यः ।२४। प०वि०-अर्दे: ५।१ सम्-नि-विभ्य: ५।३ ।
स०-सम् च निश्च विश्च ते सन्निवयः, तेभ्य:-सन्निविभ्यः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-अङ्गस्य, न, इट, निष्ठायामिति चानुवर्तते। अन्वय:-सन्निविभ्योऽर्देरङ्गाद् निष्ठाया इड् न।
अर्थ:-सन्निविभ्य उपसर्गेभ्य: परस्माद् अर्देरगाद् उत्तरस्या निष्ठाया इडागमो न भवति।
उदा०-(सम्) समर्णः । (नि:) न्यर्णः । (वि:) व्यर्णः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(सन्निविभ्यः) सम्, नि, वि इन उपसर्गों से परे (अर्दे:) अदि इस (अङ्गात्) अङ्ग से उत्तरवर्ती (निष्ठाया:) निष्ठा-संज्ञक प्रत्यय को (इट्) इडागम (न) नहीं होता है।
उदा०- (सम्) समर्णः । सङ्गत/संयाचित। (नि) न्यर्णः । निगत/नियाचित। (वि) व्यर्णः। विगत/वियाचित।
सिद्धि-समर्ण: । सम्+अ+क्त। सम्+अ+त। सम्+अन्+न। सम्+अ+ण। सम्+अ+ण। समर्ण+सु। समर्णः ।
यहां सम्-उपसर्गपूर्वक 'अर्द गतौ याचने च' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से इडागम का प्रतिषेध होता है। 'रदाभ्यां निष्ठातो न: पूर्वस्य च दः' (८१२४८२) से निष्ठा-तकार को नकार और पूर्ववर्ती धातुस्थ दकार को भी नकार आदेश होता है। 'रषाभ्यां नो ण: समानपदे' (८।४।१) से णत्व, 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से नकार को टवर्ग णकार और हलो यमां यमि लोप:' (८।४।६३) से पूर्ववर्ती णकार का लोप होता है। ऐसे ही-न्यर्णः, व्यर्णः ।
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