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________________ १०४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (८) औनयीत् । ऊन परिहाणे' (चु०उ०) णिजन्त। (९) ऐलयीत् । 'इल प्रेरणे' (चु०प०) । (१०) अश्वयीत् । 'टुओश्वि गतिवृद्ध्योः ' (भ्वा०प०)। (११) अकखीत् । कखे हसने' (भ्वा०प०) एदित् । (१२) अरगीत् । रगे शङ्कायाम्' (भ्वा०प०) एदित् । वृद्धि-विकल्प: (६) ऊर्णोतेर्विभाषा।६। प०वि०-ऊर्णोते: ६।१ विभाषा ११। अनु०-अङ्गस्य, सिचि, वृद्धि:, परस्मैपदेषु, अच:, न, इटि इति चानुवर्तते। अन्वय:-ऊोतरङ्गस्याच: परस्मैपदेषु इटि सिचि विभाषा वृद्धिर्न । अर्थ:-ऊोतरङ्गस्याच: स्थाने परस्मैपदपरके इडादौ सिचि परतो विकल्पेन वृद्धिर्न भवति। उदा०-प्रौर्णवीत् । प्रौर्णावीत् (वृद्धि:)। प्रौणुवीत् (सिच् डित्) । आर्यभाषा: अर्थ-(ऊोते:) ऊर्गुञ् इस (अङ्गस्य) अङ्ग के (अच:) अच् के स्थान में (परस्मैपदेषु) परस्मैपद-परक (इटि) इडादि (सिचि) सिच् प्रत्यय परे होने पर (विभाषा) विकल्प से (वृद्धि:) वृद्धि (न) नहीं होती है। उदा०-प्रौर्णवीत् । प्रौर्णावीत् (वृद्धि)। प्रौMवीत् (सिच् डित्) । उसने आच्छादित किया (ढका)। सिद्धि-(१) प्रौर्णवीत् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक ऊर्जुन आच्छादने (अ०3०) धातु से पूर्ववत् लुङ्' प्रत्यय और च्लि' के स्थान में सिच्' आदेश है। यहां इस सूत्र से वृद्धि का प्रतिषेध होता है। अत: सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से गुण होकर (एचोऽयवायाव:' (६।१।७६) से अव्-आदेश होता है। (२) प्रौर्णावीत् । यहां विकल्प-पक्ष में इस सूत्र से वृद्धि होती है और पूर्ववत् आव्-आदेश है। (३) प्रौणुवीत् । यहां परस्मैपदपरक, इडादि सिच्’ प्रत्यय, विभाषोर्णो:' (१।२।३) से डिद्वत् है। अत: 'क्डिति च' (१।१।५) से गुण और वृद्धि दोनों का प्रतिषेध होने से अचि शुनुधातुभ्रुवा०' (६।४।७७) से उवङ्-आदेश होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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