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________________ १०० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् वृद्धिः (२) अतो रलान्तस्य।२। प०वि०-अत: ६ ।१ रल ६ १ (लुप्तषष्ठीकं पदम्) अन्तस्य ६।१। सo-रश्च लश्च एतयो: समाहार: रलम् (समाहारद्वन्द्वः) । अनु०-अङ्गस्य, सिचि, वृद्धिः, परस्मैपदेषु इति चानुवर्तते। अन्वय:-अतोऽन्तस्य रलस्याङ्गस्यात् परस्मैपदेषु सिचि वृद्धिः । अर्थ:-अत: समीपौ यौ रेफलकारौ तदन्तस्याङ्स्यात एव स्थाने परस्मैपदपरके सिचि परतो वृद्धिर्भवति। उदा०-(रः) अक्षारीत् । अत्सारीत्। (ल:) अज्वालीत् । अह्नालीत्। आर्यभाषा: अर्थ-(अत:) अकार के (अन्तः) समीपवर्ती जो (रलस्य) रेफ और लकार हैं उस रेफान्त और लकारान्त (अङ्गस्य) अग के (अत:) अकार के ही स्थान में (परस्मैपदेषु) परस्मैपद-परक (सिचि) सिच् प्रत्यय परे होने पर (वृद्धि:) वृद्धि होती है। उदा०-(र) अक्षारीत्। वह झरा/बहा। अत्सारीत्। वह टेढा चला। (ल) अज्वालीत् । वह जला/दीप्त हुआ। अह्नालीत्। वह कांपा/थरथराया। सिद्धि-(१) अक्षारीत् । यहां 'क्षर संचलने' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् लुङ्' और परस्मैपदपरक सिच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से रेफान्त 'क्षर्' धातु के अकार को वृद्धि होती है। ऐसे ही 'त्सर छद्मगतौ' (भ्वा०प०) धातु से-अत्सारीत् । (२) अज्वालीत् । यहां ज्वल दीप्तौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् लुङ् और परस्मैपदपरक सिच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से लकारान्त 'ज्वल्' धातु के अकार को वृद्धि होती है। ऐसे ही ‘ह्मल संचलने' (भ्वा०प०) धातु से-अह्मालीत्। यह 'अतो हलादेर्लघो:' (७।२।७) से प्राप्त विकल्प का अपवाद है। वृद्धिः (३) वदव्रजहलन्तस्याचः।३। प०वि०-वद-व्रज-हलन्तस्य ६।१ अच: ६।१। स०-हल् अन्ते यस्य स हलन्त: । वदश्च व्रजश्च हलन्तश्च एतेषां समाहारो वदवजहलन्तम्, तस्य-वदवजहलन्तस्य (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्वः)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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