________________
६८
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) ओष्ठ्यपूर्वस्यापि न भवति-पप्रितमम् । वव्रितमम् । (३) क्वचिद् ओष्ठ्यपूर्वस्य भवति-पपुरि: (ऋ० १।४६।४)।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (ओष्ठ्यपूर्वस्य) ओष्ठ्य वर्ण जिसके पूर्व है उस (ऋत:) ऋकारान्त (धातो:) धातु-रूप (अङ्गस्य) अङ्ग को (बहुलम्) प्रायश: (उत्) उकार आदेश होता है। उदाहरणम्
(१) ओष्ठ्यपूर्वी धातु को उकार आदेश कहा है किन्तु छन्द में बहुल-वचन से अनोष्ठ्यपूर्वी धातु को भी उकार आदेश होता है-मित्रावरुणा ततुरिम् (ऋ० ४।३९।२)। ततुरि:-तरनेवाला। दूरे ह्यध्वा जगुरिः (ऋ० १० १०८ (१)। जगुरि:=निगलनेवाला।
(२) ओष्ठ्यपूर्वी धातु को भी छन्द में बहुल-वचन से उकार आदेश नहीं होता है-पप्रितमम् । अतिशय पालन-पोषण करनेवाला। वव्रितमम् । अतिशय वरण करनेवाला।
(३) कहीं छन्द में बहुलवचन से ओष्ठ्यपूर्वी धातु को उकार आदेश हो भी जाता है-पुपुरिः (ऋ० १।४६।४)। पपुरि:=पालन-पोषण करनेवाला।
सिद्धि-(१) ततुरिः । तृ+लिट् । तृ+किन् । तृ+इ। त् उर+इ। तुर्+इ। तृ+तृ+इ। त+तुस्+इ। त-तुर्+इ। ततुरि+सु । ततुरिः ।
यहां तृ प्लवनसन्तरणयोः' (भ्वा०प०) धातु से 'आदामहनजन: किकिनौ लिट् च' (३।२।१७१) से किन्' प्रत्यय और लिट्वत् कार्य है। इस सूत्र से अनोष्ठ्यपूर्वी तृ' धातु को उकार आदेश होता है। तत्पश्चात् द्विवचनेऽचिं' (१।१।५९) से इसे स्थानिवत् मानकर तृ' को लिड्वद्भाव से द्वित्व, उरत्' (७।४।६६) से अभ्यासस्थ ऋकार को अकार आदेश होता है। ऐसे ही ग निगरणे' (तु०प०) धातु से-जगुरिः। कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यासस्थ गकार को चवर्ग जकार होता है।
(२) पप्रितमम् । यहां पृ पालनपूरणयो:' (क्रया०प०) धातु से पूर्ववत् किन्' प्रत्यय है। यहां ओष्ठ्यपूर्वी 'पृ' धातु को उकार आदेश नहीं है। 'इको यणचि (६ ११७६) से यण आदेश होता है। तत्पश्चात् 'पप्रि' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' (५ ।३।६८) से अतिशायन अर्थ में तमप्' प्रत्यय है। ऐसी ही वृ वरणे' (क्रया०प०) धातु से-वव्रितमम्।
(३) पपुरिः । यहां पृ पालनपूरणयो:' (ऋया०प०) धातु से पूर्ववत् किन्' प्रत्यय है। यहां छन्दविषय में ओष्ठ्यपूर्वी पृ धातु को उकार आदेश है। बहुलवचन से छन्द में सब विधियां व्यभिचरित हो जाती हैं।
।। इति आदेशागमप्रकरणम्।। इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचने
सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org