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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अनु०-अङ्गस्य, तृज्वत्, क्रोष्टुरिति चानुवर्तते । अन्वय:-क्रोष्टुरङ्गस्य अजादिषु तृतीयादिषु विभाषा तृज्वत्। अर्थ:-क्रोष्टुरित्येतस्याऽङ्गस्याऽजादिषु तृतीयादिषु विभक्तिषु परतो विकल्पेन तृज्वत् कार्यं भवति। उदा०-(टा) क्रोष्ट्रा, क्रोष्टुना। (3) क्रोष्टे, क्रोष्टवे। (डसि) क्रोष्टुः, क्रोष्टोः। (डस्) क्रोष्टुः, क्रोष्ट्रो:। (ओस्) क्रोष्ट्रो:, क्रोष्ट्वोः । (ङि) क्रोष्टरि, क्रोष्टौ। (ओस्) क्रोष्ट्रो:, क्रोष्ट्वोः । ___आर्यभाषा: अर्थ-(क्रोष्टुः) क्रोष्टु इस (अङ्गस्य) अङ्ग को (अजादिषु) अजादि (तृतीयादि) तृतीया-आदि विभक्ति परे होने पर (विभाषा) विकल्प से (तृज्वत्) तृच् के समान कार्य होता है। उदा०-(टा) क्रोष्ट्रा, क्रोष्टुना। शृगाल (गीदड़) से। (२) क्रोष्ट्रे, क्रोष्टवे। शृगाल के लिये। (ङसि) क्रोष्टुः, क्रोष्टोः । शृगाल से। (डस्) क्रोष्टुः, क्रोष्ट्रो: । शृगाल का। (ओस्) क्रोष्ट्रोः, क्रोष्ट्वोः । दो शृगालों का। (ङि) क्रोष्टरि, क्रोष्टौ। शृगाल में/पर। (ओस्) क्रोष्ट्रो:, क्रोष्ट्वोः । दो शृगालों में/पर। सिद्धि-(१) क्रोष्ट्रा । क्रोष्टु+टा। क्रोष्ट+आ। क्रोष्ट्र+आ। क्रोष्ट्रा। यहां क्रोष्टु' शब्द से स्वौजस०' (४।१।२) से तृतीया-आदि और अजादि 'टा' (आ) प्रत्यय है। इस सूत्र कोष्टु' शब्द को तृज्वद्भाव होता है। अत: क्रोष्टु शब्द क्रोष्ट्र रूप हो जाता है। 'इको यणचि' (७।३।११०) से 'यण' आदेश (र) है। ऐसे ही-क्रोष्ट्र, क्रोष्ट्रोः। (२) क्रोष्टुः । क्रोष्टु+ङसि । क्रोष्ट+अस् । क्रोष्ट्+उ+स् । क्रोष्टुस् । क्रोष्टुः । यहां क्रोष्टु' शब्द से पूर्ववत् ‘डसि' प्रत्यय है। तृज्वद्भाव होकर ऋत उत्' (६।१।१११) से उकार रूप एकादेश होता है। ऐसे ही 'डस्' में-क्रोष्टः । (३) क्रोष्टरि । क्रोष्टु+डि । क्रोष्ट+इ। क्रोष्ट् अर्+इ। क्रोष्टरि। यहां 'कोष्टु' शब्द से पूर्ववत् 'डि' प्रत्यय है। तृज्वद्भाव होकर 'ऋतो डिसर्वनामस्थानयोः' (७।३।११०) से गुण (अर्) होता है। (४) क्रोष्टुना । क्रोष्टु+टा। क्रोष्टु+आ। क्रोष्टु+ना। क्रोष्टुना। यहां क्रोष्टु' शब्द से पूर्ववत् 'टा' प्रत्यय है। विकल्प-पक्ष में तज्वद्भाव नहीं है। अत: 'आङो नाऽस्त्रियाम् (७।३।१२०) से 'टा' के स्थान में ना' आदेश होता है। (५) क्रोष्टवे। क्रोष्टु+डे। क्रोष्टु+ए। क्रोष्टो+ए। क्रोष्ट+ए। क्रोष्टवे। यहां क्रोष्ट्र' शब्द से पूर्ववत् डे' प्रत्यय है। विकल्प-पक्ष में तज्वद्भाव नहीं है। अत: 'घेडिति' (७।३।१११) से गुण और एचोऽयवायाव:' (६ १११७७) से अव्--आदेश होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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