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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-शीर्षण्यो हि मुख्यो भवति । शीर्षण्य: स्वरः । शीर्षण्य: मुख्य (प्रधान)। सिद्धि-शीर्षण्यः । शिरस्+यत् । शीर्षन्+य। शीर्षण+य। शीर्षण्य+सु । शीर्षण्यः ।
यहां शिरस्' शब्द से 'शरीरावयवाच्च' (४।३।५५) से भव-अर्थ में यकारादि, तद्धित यत्' प्रत्यय है। इस सूत्र से शिरस्' के स्थान में शीर्षन्' आदेश होता है। ये चाभावकर्मणोः' (६ ।४।१६८) से प्रकृतिभाव और 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से नकार का णत्व होता है। शीर्ष-आदेश:
(३) अचि शीर्षः ।६२। प०वि०-अचि ७।१ शीर्षः १।१ । अनु०-तद्धिते इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अचि तद्धिते {शिरस:} शीर्षः ।
अर्थ:-अजादौ तद्धिते प्रत्यये परत: शिर:शब्दस्य स्थाने शीर्ष आदेशो भवति।
उदा०-हस्तिशिरसोऽपत्यम्-हास्तिशीर्षिः। स्थूलशिरस इदम्स्थौलशीर्षम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(अचि) अजादि (तद्धिते) तद्धित प्रत्यय परे होने पर (शिरस:) शिरस् शब्द के स्थान में (शीर्ष:) शीर्ष आदेश होता है।
उदा०-हस्तिशिरा का अपत्य (पुत्र)-हास्तिशीर्षि । हस्तिशिरा का यह-हास्तिशीर्ष ।
सिद्धि-(१) हास्तिशीर्षि: । हस्तिशिरस्+डस्+इन् । हस्तिशीर्ष+इ। हास्तिशीर्षि+सु । हास्तिशीर्षिः।
यहां 'हस्तिशिरस्' शब्द से अपत्य अर्थ में 'बाहादिभ्यश्च' (४।१।४५) से 'इ' प्रत्यय है, इस अजादि तद्धित प्रत्यय परे होने पर 'शिरस' शब्द के स्थान में इस सूत्र से 'शीर्ष' आदेश होता है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। शीर्षन् आदेश होने पर 'अन्' (६।४।१६७) से प्रकृतिभाव होता. अत: शीर्ष आदेश किया गया है।
(२) स्थौलशीर्षम् । यहां स्थूलशिरस्' शब्द से तस्येदम्' (४।३।११९) से अजादि तद्धित 'अण्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।