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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-छन्दसि विषये शिर:स्थाने शीर्षन् आदेशो निपात्यते। उदा०-शीर्णा हि तत्र सोमं क्रीतं वहन्ति । यत्ते शीर्णो दौर्भाग्यम् । आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (शीर्षन्) शीर्षन् आदेश निपातित है। उदा०-शीर्णा हि तत्र सोमं क्रीतं वहन्ति । यत्ते शीर्णो दौर्भाग्यम् । सिद्धि-(१) शीर्णा । शिरस्+टा। शीर्षन्+आ। शीर्षन्+आ। शीर्षण+आ। शीर्णा।
यहां छन्दविषय में शीर्षन्' शब्द से तृतीया-विभक्ति का एकवचन 'टा' प्रत्यय है। 'अल्लोपोऽन:' (६।४।१३४) से शीर्षन के अकार का लोप और 'रषाभ्यां नो ण: समानपदे' (८।४।१) से णत्व होता है।
(२) शीर्ण: । यह षष्ठीविभक्ति का एकवचन है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: (१) काशिकाकार पं० जयादित्य का मत है कि यह शीर्षन्' शब्द छन्द में शिर:' शब्द का समानार्थक शब्द है। यह शिरः' शब्द के स्थान में शीर्षन आदेश निपातित नहीं है अपितु यह शब्दान्तर है। यदि शिर: शब्द को शीर्षन् आदेश माना जाये तो 'शिरः' शब्द का छन्द में प्रयोग नहीं होना चाहिये किन्तु वह भी छन्द में प्रयुक्त है।
(२) न्यासकार पं० जिनेन्द्रबुद्धि का मत है कि 'अन्यतरस्याम्' पद की अनुवृत्ति करने पर 'शीर्षन्' आदेश पक्ष में भी कोई दोष नहीं है।
(३) शिरः' शब्द के स्थान में शीर्षन्' आदेश निपातित करना उचित है। यह ये च तद्धिते' (६।११६०) में 'चकार' 'च' पद के पाठ से ध्वनित होता है। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति' इस वचन-प्रमाण से छन्द में दोनों शब्दों का व्यवहार साधु है। शीर्षन्-आदेश:
(२) ये च तद्धिते।६१। प०वि०-ये ७१ च अव्ययपदम्, तद्धिते ७।१। अनु०-शीर्षन् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-तद्धिते ये च (शिरस:} शीर्षन्।
अर्थ:-यकारादौ तद्धिते प्रत्यये च परत: शिर:शब्दस्य स्थाने शीर्षन्-आदेशो भवति।
उदा०-शीर्षण्यो हि मुख्यो भवति । शीर्षण्य: स्वरः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(ये) यकारादि (तद्धिते) तद्धित प्रत्यय परे होने पर (च) भी शिरस् शब्द के स्थान में (शीर्षन्) शीर्षन् आदेश होता है।