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________________ षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः ६३ 1 उदा० - तृप प्रीणने ( दि०प०) त्रप्ता, तप्त, तर्पिता । दृप हर्षमोहनयोः (दि०प०) द्रप्ता, दर्ता, दर्पिता । आर्यभाषा: अर्थ- ( उपदेशे) पाणिनिमुनि के उपदेश धातुपाठ में (अनुदात्त ) अनिट् (च) और (ऋदुपधस्य) ऋकार उपधावाली (धातोः) धातु को (अकिति) कित् से भिन्न (झलि) झलादि प्रत्यय परे होने पर (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (अम्) अम् आगम होता है। उदा० - तृप प्रीणने ( दि०प०) त्रप्ता, तप्त, तर्पिता । तृप्त करनेवाला । दृप हर्षमोहनयो: ( दि०प०) द्रप्ता, दर्ता, दर्पिता । अभिमान करनेवाला । सिद्धि - (१) त्रप्ता । तृप्+तृच् । तृप्+तृ । तृ अम् प्+तृ । तृ अ प्+तृ । त् र् अ प्+तृ । त्रप्तृ+सु । त्रप्ता । यहां 'तृप प्रीणनें' (दि०प०) इस अनुदात्त और ऋकार उपधावाली धातु से 'ण्वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से कित्-भिन्न, झलादि तृच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से तृप्' धातु को अम् आगम होता है और वह मित् होने से 'मिदचोऽन्त्यात् परः ' (१ । १ । ४६ ) से 'तृप्’ के अन्तिम अच् ऋकार से परे होता है । 'इको यणचिं' (६ /१/७५) से 'तृप्' के ऋकार को रेफ आदेश होता है। (२) तप्त। यहां पूर्वोक्त 'तृप्' धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय है। यहां विकल्प-पक्ष में 'तृप्' धातु को अम् आगम नहीं है अत: पुगन्तलघूपधस्य चं' (७।३।८६) से 'तृप्' धातु को 'लघूपध गुण 'अर्' होता है । (३) तर्पिता । यहां पूर्वोक्त 'तृप्' धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय है। यहां 'रधादिभ्यश्च' (७।२।४५) से 'तृच्' प्रत्यय को 'इट्' आगम होता है। इट् आगम से 'तृप्' धातु के अनुदात्त न रहने से उसे इस सूत्र से अम् आगम नहीं होता है। (४) 'तृप्' धातु के सहाय से 'दृष्' धातु के पदों की सिद्धि करें । विशेषः पाणिनीय धातुपाठ में उदात्त आदि शब्दों का अर्थ निम्नलिखित है—उदात्त=सेट् । अनुदात्त=अनिट् । स्वरित=वेट् । उदात्तेत्-परस्मैपद। अनुदात्तेत्=आत्मनेपद । स्वरितेत्= उभयपद । आदेशप्रकरणम् (१) शीर्षश्छन्दसि । ६० । निपातनम् प०वि० - शीर्षन् १ ।१ छन्दसि ७ । १ । अन्वयः - छन्दसि शीर्षन् ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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