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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम् आर्यभाषाः अर्थ- (सृजिदृशो:) सृज् और दृश् (धातोः) धातुओं को (अकिति) कित् से भिन्न ( झलि ) झलादि प्रत्यय परे होने पर (अम्) अम् आगम होता है। 1- ( सृजि) स्रष्टा । बनानेवाला । स्रष्टुम् । बनाने के लिये । स्रष्टव्यम् । बनाना चाहिये। (दृश्) द्रष्टा । देखनेवाला । द्रष्टुम् । देखने के लिये । द्रष्टव्यम्। देखना चाहिये । उदा० ६२ सिद्धि - (१) स्रष्टा । सृज्+तृच् । सृ अम् ज्+तृ। स् र् अ ज्+तृ। स्रज्+तृ। स्रष्+टृ। स्रष्टृ+सु । स्रष्टा । यहां 'सृज् विसर्गे (तु०प०) धातु से 'ण्वुल् तृचौ' (३ ।१ ।१३३) से तृच् प्रत्यय है। कित् से भिन्न, झलादि तृच् प्रत्यय परे होने पर 'सृज्' धातु को इस सूत्र से 'अम्' आगम होता है और वह मित् होने से 'मिदचोऽन्त्यात् पर:' ( १1१।४६ ) से 'सृज्' धातु के अन्तिम अच् से परे होता है । 'इको यणचि' (६ /१/७५) से सृज् के ऋकार को रेफ आदेश होता है। 'व्रश्चभ्रस्ज०' (८ / २ / ३६ ) से 'सृज् ' के जकार को षत्व और 'ष्टुना ष्टुः' (८/४/४०) से तकार को टुत्व होता है । (२) स्रष्टुम् । यहां 'सृज्' धातु से तुमुन्णमुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्' ( ३ । ३ । १०) से कित् -भिन्न, झलादि 'तुमुन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (३) स्रष्टव्यम् । यहां 'सृज्' धातु से 'तव्यत्तव्यानीयरः ' ( ३ |१| ९६ ) से कित्-भिन्न झलादि 'तव्यत्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (४) सृज्' धातु के सहाय से 'दृश्' धातुओं के द्रष्टा आदि पदों की सिद्धि करें । अमागम-विकल्पः (२) अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्तरस्याम् । ५६ । प०वि० - अनुदात्तस्य ६ । १ च अव्ययपदम् ऋदुपधस्य ६ |१ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम् । स०-ऋद् उपधा यस्य स ऋदुपध:, तस्य ऋदुपधस्य ( बहुव्रीहि: ) । अनु० - धातो:, उपदेशे, झलि, अम्, अकिति इति चानुवर्तते । अन्वयः - उपदेशेऽनुदात्तस्य ऋदुपधस्य च धातोरकिति झल्यन्यत रस्यामम् । अर्थ:- उपदेशेऽनुदात्तस्य ऋकारोपधस्य च धातो: कि द्भिन्ने झलादौ प्रत्यये परतो विकल्पेनामागमो भवति ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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