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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) सौरी। सूर्य+अण्। सूर्य+अ। सौर्य+अ। सौर्य ।। सौर्य+डीम् । सौर्य+०डीप् । सौर्य+ई। सौय्+ई। सौ6+ई। सौरी+सु । सौरी।
यहां प्रथम सूर्य' शब्द से तेनैकदिक्' (४।३।११२) से एकदिक्-समान दिशा-अर्थ में तद्धित 'अण्' प्रत्यय है। 'अण्' प्रत्यय परे होने पर 'सूर्य' शब्द के अकार का यस्येति च' (६।४।१४८) से लोप होता है। तत्पश्चात् अणन्त सौर्य' शब्द से स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणञ्' (४।१।१५) से 'डीप्' प्रत्यय है। ईकार परे होने पर इस सूत्र सूर्यसम्बन्धी सौर्य' शब्द के उपधाभूत यकार का लोप होता है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अकार का लोप भी होती है। 'असिद्धवदत्राभात' (६।४।२२) से इसे असिद्ध मानकर 'यकार' उपधाभूत होता है।
(२) तैषम् । तिष्य+अण् । तिष्य+अ । तिष्य्+अ। तैष्+अ। तैष+सु । तैषम् ।
यहां तिष्य' शब्द से नक्षत्रेण युक्त: काल:' (४।२।३) से युक्त-अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। स्त्रीलिङ्ग में 'टिड्ढाणञ्' (४।१।१५) से 'डीप्' प्रत्यय है-तैषी रात्रिः।
(३) आगस्ती। यहां अगस्त्य' शब्द से ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च' (४।१।११४) से ऋषि-अपत्य अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् स्त्रीलिङ्ग में पूर्ववत् ‘डीप्' प्रत्यय होता है। आगस्ती' शब्द से वृद्धाच्छः' (४१२।११४) से शैषिक भव-अर्थ में छ' प्रत्यय होकर-आगस्तीयः।
(४) मत्सी । मत्स्य+डीए । मत्स्य+ई। मत्स्य्+ई। मत्स्+ई। मत्सी+सु । मत्सी।
यहां 'मत्स्य' शब्द से 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४।१।४१) से 'डीए' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। उपधा-लोपः
(२२) हलस्तद्धितस्य।१५०। प०वि०-हल: ५।१ तद्धितस्य ६।१।
अनु०-अङ्गस्य, भस्य, लोप:, ईति, य:, उपधाया इति चानुवर्तते। 'तद्धिते' इति च निवृत्तम्।।
अन्वय:-भस्य अङ्गस्य हलस्तद्धितस्य उपधाया य ईति लोपः।
अर्थ:-भसंज्ञकस्य अङ्गस्य हल उत्तरस्य तद्धितस्य उपधाभूतस्य यकारस्य ईकारे लोपो भवति ।
उदा०-गर्गस्य गोत्रापत्यं स्त्री-गार्गी। वात्सी।