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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-यस्य इकारान्तस्य अकारान्तस्य च भस्य अङ्गस्य ईकारे तद्धिते च प्रत्यये परतो लोपो भवति ।
उदा०-इकारान्तस्य ईकारे-दक्षस्य अपत्यं स्त्री-दाक्षी। प्लाक्षी। सखी। इकारान्तस्य तद्धिते-दुलेरपत्यम्-दौलेयः। वालेयः। आत्रेयः । अकारान्तस्य ईकारे-कुमारी। गौरी। शाङ्ग्रवी। अकारान्तस्य तद्धिते-दक्षस्य अपत्यम्-दाक्षि: । प्लाक्षि: । चौडि: । बालाकि: । सौमित्रिः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(यस्य) इकारान्त और अकारान्त (भस्य) भ-संज्ञक (अङ्गस्य) अङ्ग का (इति) ईकार (च) और (तद्धिते) तद्धित प्रत्यय परे होने पर (लोप:) लोप होता है।
उदा०-इकारान्त का ईकार परे होने पर-दाक्षी। दक्ष की पुत्री। पाणिनि मुनि की माता का नाम । प्लाक्षी। प्लक्ष की पुत्री। सखी। सहेली। इकारान्त का तद्धित परे होने पर-दौलेयः । दुलि का पुत्र । वालेयः । वालि का पुत्र । आत्रेयः। अत्रि का पुत्र। अकारान्त का ईकार परे होने पर-कुमारी। कन्या। गौरी। पार्वती। शारिवी। एक ऋषि कन्या का नाम। अकारान्त का तद्धित परे होने पर-दाक्षि: । प्लाक्षिः । चौडिः । बालाकिः । सौमित्रिः । अर्थ पूर्ववत् है। .. सिद्धि-(१) दाक्षी। दाक्षि+डीप् । दाक्षि+ई। दा+ई। दाक्षी+सु। दाक्षी।
यहां दाक्षि' शब्द से 'इतो मनुष्यजाते:' (४।१।६५) से स्त्रीलिङ्ग में 'डी' प्रत्यय है। ईकार परे होने पर इस सूत्र से दाक्षि' के अन्त्य इकार का लोप होता है। ऐसे ही-प्लाक्षी।
(२) सखी। यहां सखि' शब्द से 'सख्यशिश्वीति भाषायाम् (४।१।६२) से स्त्रीलिङ्ग में 'डीए' प्रत्यय निपातित है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) दौलेयः । दुलि+ढक् । दुलि+ढ । दौलि+एय। दौल्+एय। दौलेया । दौलेयः ।
यहां 'दुलि' शब्द से इतश्चानिञः' (४।१।१२२) से अपत्य-अर्थ में ढक्’ प्रत्यय है। तद्धित ढक्’ प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से 'दुलि' के अन्त्य इकार का लोप होता है। ऐसे ही-वालेयः, आत्रेयः।
(४) कुमारी। कुमार+डीप् । कुमार+ई। कुमार+ई। कुमारी+सु । कुमारी।
यहां कुमार' शब्द से 'वयसि प्रथमे (४।१।२०) से स्त्रीलिङ्ग में 'डीप्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(५) गौरी । यहां गौर' शब्द से षिद्गौरादिभ्यश्च' (४।१।४१) से स्त्रीलिङ्गमें 'डीए' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।