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________________ ६८२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् है । तत्पश्चात् वसु - अन्त भ- संज्ञक अङ्ग को 'शस्' प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से सम्प्रसारण होता है। 'सम्प्रसारणाच्च' (६ । १ । १०६ ) से पूर्वरूप एकादेश और ‘'आदेशप्रत्यययोः' (८ ।३ । ५९ ) से षत्व होता है। ऐसे ही - विदुषा (टा) । विदुषे (ङे) । (२) पेचुषः । पच्+ लिट् । पच्+ल् । पच्+क्वसु । पच्+वस्। पच्-पच्+वस् । ०-पेच्+वस् । पेच्+वस्+शस् । पेच्+उ अस्+अस् । पेच्+उस्+अस् । पेचुष्+अस् । पेचुषस् । पेचुषः । यहां 'डुपचष् पाकें' (भ्वा० उ० ) धातु से लिट्' प्रत्यय है । 'क्वसुश्च' (३ । २ । १०७ ) से 'लिट्' के स्थान में 'क्वसु' आदेश, 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६ 1१1८) से 'पच्' धातु के द्वित्व, 'अत एकहल्मध्ये० ' ( ६ । ४ । १२० ) से एत्त्व और अभ्यास का लोप होता है। 'शस्' प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से भ-संज्ञक वसु - अन्त अङ्ग को सम्प्रसारण होता है। सम्प्रसारण हो जाने पर वलादि आर्धधातुक न रहने से 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७ 1२1३५) से 'इट्' आगम नहीं होता है। (३) पपुष: । 'पा पाने' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् । क्वसु और 'आतो लोप इटि च' (६/४/६४) से 'पा' के आकार का लोप होता है। आकार का लोप करने में 'असिद्धवदत्राभात्' (६ । ४ । २२) से सम्प्रसरण असिद्ध नहीं होता है क्योंकि सम्प्रसारण 'शस्' विभक्ति पर आश्रित है, समानाश्रित कार्य असिद्ध होता है, व्याश्रित नहीं । में 'वसु' ' के ग्रहण से 'क्वसु' प्रत्यय का भी ग्रहण किया विशेषः सूत्रपाठ जाता है। ऊठ् सम्प्रसारणम् (४) वाह ऊठ् | १३२ । प०वि० - वाहः ६ । १ ऊठ् १ । १ । अनु०-अङ्गस्य, भस्य, सम्प्रसारणम् इति चानुवर्तते । अन्वयः-वाहो भस्य अङ्गस्य ऊठ् सम्प्रसारणम् । अर्थ:-वाहन्तस्य भसंज्ञकस्य अङ्गस्य ऊठ् इति सम्प्रसारणं भवति । उदा० - प्रष्ठौहः, प्रष्ठौहा, प्रष्ठौहे । दित्यौह:, दित्यौहा, दित्यौहे । आर्यभाषाः अर्थ - (वाह: ) वाह जिसके अन्त में है उस (भस्य ) भ-संज्ञक (अङ्गस्य) अङ्ग को (ऊठ्) ऊठ् यह (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण होता है। " उदा०- प्रष्ठौहः । बैलों को । प्रष्ठौहा। बैल के द्वारा । प्रष्ठौहे । बैल के लिये । प्रष्ठवाह (पुं) जवान बैल जिसे हल जोतने का अभ्यास कराया जाता हो (शब्दार्थकौस्तुभ ) । हलाऊ नारा । दित्यौहः । दैत्य- वोढाओं को । दित्यौहा। दैत्य-वोढा के द्वारा । दित्यौहे । दैत्य - वोढा के लिये ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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