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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
૬૭૬ उपधा का दीर्घ और 'हल्याब्भ्यो दीर्घात्०' (६।१।६७) से 'सु' का लोप होता है। ऐसे ही-मघवन्तौ आदि।
(२) मघवती । मघवन्+डीप्। मघवतृ+ई। मघवत्+ई। मघवती+सु। मघवती।
यहां मघवन्' शब्द से स्त्रीत्व-विवक्षा में तृ' के उगित् हेने से 'उगितश्च (४।१।६) से डीप्' प्रत्यय है।
(३) माघवतम् । मघवन्+अण् । मघवतृ+अ। माघवत्+अ । माघवत+सु । माघवतम्।
यहां मघवन्' शब्द से तस्यापत्यम् (४।१।९२) से अपत्य अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय परे होने पर तृ' आदेश होता है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अङ्ग को आदिवृद्धि होती है।
__बहुलवचन से मघवा, मघवानौ, मघवान: इत्यादि में मघवान्' शब्द को तृ-आदेश नहीं है।
।। इति आदेशप्रकरणम् ।।
भ-संज्ञाप्रकरणम् भ-अधिकार:
(१) भस्य।१२६। वि०-भस्य ६।१।
अर्थ:-'भस्य' इत्यधिरोऽयम्, आ अध्यायपरिसमाप्तेः। यदितोऽग्रे वक्ष्यति 'भस्य' इत्येवं तद् वेदितव्यम् । वक्ष्यति- पाद: पत्' (६।४।१३०) इति। द्विपद: पश्य । द्विपदा कृतम्।
आर्यभाषाअर्थ-(भस्य) 'भस्य' यह अधिकार सूत्र है, इसका षष्ठ अध्याय की समाप्ति पर्यन्त अधिकार है। पाणिनि मुनि इससे आगे जो कहेंगे वह 'भस्य' भ-संज्ञक को कार्य होगा, ऐसा जानें। जैसे कि पाणिनि मुनि कहेंगे-पाद: पत्' (६।४।१३०) अर्थात् 'पाद्' के स्थान में पत्' आदेश होता है। द्विपदः पश्य । तू दो पांवोंवालों को देख । द्विपदा कृतम् । दो पांवों केद्वारा किया गया।
___ सिद्धि-द्विपद ' आदि पदों की सिद्धि आगे यथास्थान लिखी जायेगी। पत्-आदेश:
(२) पादः पत्।१३०। प०वि०-पाद: ६१ पत् ११ । अनु०-अङ्गस्य, भस्य इति चानुवर्तते।