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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः तु (तर्) धातु के अकार को लिट् (तस्) प्रत्यय परे होने पर एकारादेश और अभ्यास का लोप होता है। ऐसे ही उस्' प्रत्यय परे होने पर-तेरु: । 'थल्' प्रत्यय परे होने पर-तेरिथ। न शसददवादिगुणानाम् (६।४।१२६) से एकारादेश और अभ्यास लोप का प्रतिषेध प्राप्त था, अत: यह विधान किया गया है।
(२) फेलतुः। ‘फल निष्पत्तौ' और 'त्रिफला विशरणे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् । इस धातु के आदेशादि (प) होने से अत एकहलमध्येऽनादेशादेर्लिटि' (६।४।१२०) से एकारादेश और अभ्यास लोप की प्राप्ति नहीं थी, अत: यह विधान किया गया है।
(३) भेजतुः । 'भज सेवायाम्' (भ्वा०उ०) धातु से पूर्ववत्।
(४) त्रेपे । त्रप्+लिट् । त्रप्+ल् । त्रप्+त। त्रप्+एश् । त्रप्-त्रप्+ए। ०-त्रेप्+ए। प्+ए। त्रेपे।
यहां 'त्रपूष् लज्जायाम्' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् 'लिट्' प्रत्यय है। लिटस्तझयोरेशिरेच्' (३।४।८१) से त' को 'एश्’ आदेश होता है। त्रप्' धातु के एकहल्-मध्यवान् न होने से 'अत एकहलमध्ये०' (६।४।१२०) से एकारादेश और अभ्यासलोप की प्राप्ति नहीं थी, अत: यह विधान किया गया है। 'त्रप्' धातु के आत्मनेपद होने से परस्मैपद के 'थल' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं है। एकारादेशः
(४८) राधो हिंसायाम् ।१२३। प०वि०-राध: ६।१ हिंसायाम् ७१ ।
अनु०-अङ्गस्य, क्डिति, एत्, अभ्यासलोप:, च, अत:, लिटि, थलि, च, सेटि इति चानुवर्तते।
अन्वय:-हिंसायां राधोऽङ्गस्य अत: क्डिति लिटि सेटि च थलि एत्, अभ्यासलोपश्च।
___ अर्थ:-हिंसायामर्थे वर्तमानस्य राधोऽङ्गस्य अकारस्य किति डिति च लिटि सेटि च थलि प्रत्यये परत एकारादेशो भवति, अभ्यासस्य च लोपो भवति।
उदा०-तौ अपरेधतुः। ते अपरेधुः । त्वम् अपरेधिथ।
आर्यभाषा: अर्थ-(हिंसायाम्) हिंसा अर्थ में विद्यमान (राध:) राध (अङ्गस्य) अङ्ग के (अत:) अकार को (क्डिति) कित् और डित् (लिटि) लिट् तथा (सेटि) सेट् (थलि) थल् प्रत्यय परे होने पर (च) भी (एत्) एकारादेश होता है (च) और (अभ्यासलोप:) अभ्यास का लोप होता है।