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________________ ૬૬૬ षष्टाध्यायस्य चतुर्थः पादः · होने पर एकारादेश होता है और अभ्यास का लोप होता है। ऐसे ही झि (उस्) प्रत्यय परे होने पर-रेणतुः । 'असंयोगाल्लिट् कित्' (१।२।५) से तस्' प्रत्यय किद्वत् होता है। (२) येमतुः । यम उपरमे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् । (३) पेचतुः । डुपचष् पाके' (भ्वा० उ०) धातु से पूर्ववत् । (४) देमतुः । 'दमु उपशमे' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् । एकारादेशः (४६) थलि च सेटि।१२१। प०वि०-थलि ७१ च अव्ययपदम्, सेटि ७।१। स०-इटा सह वर्तते इति सेट, तस्मिन्-सेटि (बहुव्रीहि:) । अनु०-अङ्गस्य, एत्, अभ्यासलोप:, च, अत:, एकहलमध्ये, अनादेशादेरिति चानुवर्तते। अन्वय:-अनादेशादेरङ्गस्य एकहलमध्येऽत: सेटि थलि च एत्, अभ्यासलोपश्च। अर्थ:-अनादेशादे: आदेश आदिर्यस्य नास्ति तस्याङ्गस्य एकहलमध्ये असहाययोर्हलोर्मध्ये वर्तमानस्याकारस्य सेटि थलि च प्रत्यये परत एकारादेशो भवति, अभ्यासस्य च लोपो भवति । उदा०-त्वं पेचिथ । त्वं शेकिथ । आर्यभाषा: अर्थ-(अनादेशादे:) जिसके आदि में कोई आदेश नहीं है उस (अगस्य) अग के (एकहलमध्ये) एक असहाय (असंयुक्त) दो हलों के मध्य में विद्यमान (अत:) अकार को (सेटि) सेट् (थलि) थल् प्रत्यय परे होने पर (च) भी (एत्) एकादेश होता है। उदा०-त्वं पेचिथ । तूने पकाया। त्वं शेकिथ । तू शक्त-समर्थ हुआ (कर सका)। सिद्धि-(१) पेचिथ । पच्+लिट् । पच्+ल। पच्+सिप् । पच्+थल् । पच्+इट्+थल् । पच-पच्+इ+थ। ०-पेच्+इ+थ। पेच्+इ+थ। पेचिथ। यहां 'डुपचष् पाके' (भ्वा०3०) धातु से परोक्षे लिट्' (३।२।१५५) से 'लिट्’ प्रत्यय है। 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से पच्' धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से अनादेशादि पच्' धातु के दो हलों के मध्य में विद्यमान अकार को एकारादेश और अभ्यास का लोप होता है। 'ऋतो भारद्वाजस्य' (७।२।६३) के नियम से 'थल' को इट्' आगम होता है। (२) शेकिथ । 'शक्ल शक्तौ' स्वा०प०) धातु से पूर्ववत् ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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