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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
६४३ यहां प्रथम तप सन्तापे' (भ्वा०प०) धातु से हतुमति च' (३।१।२६) से णिच्’ य प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' (७।२।११५) से अङ्ग (तप्) को उपधावृद्धि होती है। ५ तत्पश्चात् द्विषत्-उपपद णिजन्त तापि' धातु से द्विषत्परयोस्तापे:' (३।२।३९) से • 'खच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से खच्परक णिच्' प्रत्यय परे होने पर अङ्ग की उपधा : को ह्रस्वादेश होता है। ‘णेरनिटि' (६।४।५१) से 'णिच्’ का लोप होता है। 1 'अरुर्दिषदजन्तस्य मुम्' (६।३।६५) से मुम्’ आगम और संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) 1 से 'द्विषत्' के तकार का लोप होता है। ऐसे ही-परन्तपः।
(२) पुरन्दरः। यहां प्रथम दृ विदारणे' (स्वा०प०) धातु से हेतुमति च । (३।१।२६) से 'णिच्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् पुर्-उपपद णिजन्त 'दारि' धातु से । 'पू:सर्वयोरिसहो:' (३।२।४१) से 'खच्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ! हस्वादेशः
(२०) हलादो निष्ठायाम्।६५। प०वि०-ह्लाद: ६।१ । निष्ठायाम् ७।१। अनु०-अङ्गस्य, उपधाया:, ह्रस्व इति चानुवर्तते। अन्वय:-हलादोऽङ्गस्य उपधाया निष्ठायां ह्रस्वः ।
अर्थ:-ह्लादोऽङ्गस्य उपधाया: स्थाने निष्ठायां प्रत्यये परतो ह्रस्वो भवति।
उदा०-प्रहलन्न:, प्रहलन्नवान्।
आर्यभाषा: अर्थ-(हलादः) हलाद् (अङ्गमस्य) अग की (उपधायाः) उपधा के स्थान में (निष्ठायाम्) निष्ठा-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर (ह्रस्व:) ह्रस्वादेश होता है।
उदा०-प्रह्लन्न:, प्रह्लन्नवान् । प्रसन्न हुआ।
सिद्धि-प्रह्लन्नः। प्र+लाद्+क्त। प्र+लाद्+त। प्र+ह्लद्+त। प्र+लद्+न। प्रहलन्+न। प्रहलन्न+सु। प्रहलन्नः।
यहां प्र-उपसर्गपूर्वक हलादी सुखे च' (भ्वा०आ०) धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल अर्थ में क्त' है। क्तक्तवतू निष्ठा' (१।१।२६) से 'क्त' प्रत्यय की निष्ठा' संज्ञा है। इस सूत्र से निष्ठा-संज्ञक 'क्त' प्रत्यय परे होने पर हलाद्' अग की उपधा को ह्रस्वादेश होता है। 'रदाभ्यां निष्ठातो न: पूर्वस्य च दः' (८।२।४२) से 'निष्ठा' (क्त) के तकार को नकारादेश और धातु के पूर्ववर्ती दकार को भी नकारादेश होता है। ऐसे ही क्तवतु' प्रत्यय करने पर-प्रलन्नवान् ।