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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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यहां 'पा पाने' ( वा०प०) अथवा 'पा रक्षणे' (अदा०प०) धातु से 'परोक्षे लिट् (३ ।२ ।११५) से लिट्' प्रत्यय है । 'परस्मैपदानां णल०' (३ । ४ । ८२) से 'थस्' के स्थान में 'थल्' आदेश होता है। 'ऋतो भारद्वाजस्य' (७/२/६३) के नियम से 'थल्' को 'इट्' आगम होता है। इस सूत्र से इट्-अजादि 'थल्' प्रत्यय परे होने पर अङ्ग (पा) के आकार का लोप होता है। 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' ( ६ । १ । ८ ) से द्विर्वचन करते समय इस लोपादेश को स्थानिवत् मानकर 'पा' को द्वित्व होता है। ऐसे ही 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ ( वा०प०) धातु से - तस्थिथ ।
(२) पपतुः । पा+लिट् । पा+ल् । पा+तस् । पा+अतुस् । प्+अतुस्। पा-पा+अतुस् । प-प्+अतुस् । पपतुः ।
यहां पूर्वोक्त 'पा' धातु से पूर्ववत् 'लिट्' प्रत्यय और इसके स्थान में 'तस्' और इसके भी स्थान में 'परस्मैपदानां गल०' (३/४/८२) से 'अतुस्' आदेश है। अजादि, कित् 'अतुस्' प्रत्यय परे होने पर अङ्ग (पा) के आकार का लोप होता है। 'असंयोगाल्लिट् कित्' (१12 14 ) से 'अतुस्' प्रत्यय किवत् है ।
ऐसे ही 'झि' (उस्) प्रत्यय करने पर - पपुः । ष्ठा गतिनिवृतौ (भ्वा०प०) धातु से-तस्थतु:, तस्थुः ।
(३) गोद: । गो+दा+क। गो+दा+अ । गो+द्+अ । गोद+सु । गोदः ।
यहां 'गो' कर्म-उपपद 'डुदाञ् दाने (जु० उ० ) धातु से 'आतोऽनुपसर्गे कः ' (३।२।३) से 'क' प्रत्यय है। इस सूत्र से आर्धधातुक, अजादि, कित् 'क' प्रत्यय परे होने पर अङ्ग (दा) के आकार का लोप होता है। ऐसे ही - कम्बलदः ।
(४) प्रदा । प्र+दा+अङ् । प्र+दा+अ । प्र+द्+अ । प्रद+टाप् । प्रद+आ। प्रदा+सु । प्रदा+01 प्रदा ।
यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'डुदाञ् दानें' (जु०उ०) धातु से 'आतश्चोपसर्गे' (३ | ३ |१०६) से स्त्रीलिङ्ग में 'अङ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से आर्धधातुक, अजादि ङित् 'अङ्' प्रत्यय परे होने पर अङ्ग (दा) के आकार का लोप होता है । पुनः स्त्रीत्व - विवक्षा में 'अजाद्यतष्टाप्' (४/१/४) से 'टाप्' प्रत्यय होता है। ऐसे ही डुधाञ् धारणपोषणयो:' (जु०3०) धातु से- प्रधा ।
ईद-आदेश:
(२०) ईद् यति । ६५ ।
प०वि० - ईत् १ । १ यति ७ । १ ।
अनु०-अङ्गस्य, आर्धधातुके, आत इति चानुवर्तते । अन्वयः-आतोऽङ्गस्य आर्धधातुके यति ईत् ।