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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् धातु से 'वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय और इसे 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७।२।३५) से 'इट' आगम होता है। इस सूत्र से सेट्' सार्वधातुक 'तच्' प्रत्यय परे होने पर णिच्' प्रत्यय का लोप निपातित है। ‘णेरनिटि' (६।३।५१) से अनिट्-आदि आर्धधातुक परे होने पर ही णिच्-लोप प्राप्त था। यह उसका अपवाद है। निपातनम्
(६) शमिता यज्ञे।५४। प०वि०-शमिता ११ यज्ञे ७१। अनु०-अङ्गस्य, आर्धधातुके, लोप:, णे: , सेटि इति चानुवर्तते। अन्वय:-यज्ञे शमिता इत्यङ्गस्य णे: सेटि आर्धधातुके लोपः।
अर्थ:-यज्ञे कर्मणि शमिता इत्येतस्य अङ्गस्य णिच्-प्रत्ययस्य सेटि आर्धधातुके प्रत्यये परतो लोपो निपात्यते।
उदा०-शृतं हवि३: शमित: (तै०सं० ६।३।१०।१)। 'शमित:' इति सम्बुद्ध्यन्तं रूपमेतत्।
आर्यभाषा: अर्थ-(यज्ञे) यज्ञ कर्म में (शमिता) शमिता इस अङ्ग-सम्बन्धी (णे:) णिच्-प्रत्यय को (सेटि) सेट् (आर्धधातुके) आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर (लोप:) लोपादेश निपातित है।
उदा०-शृतं हवि३: शमित: (तै०सं०६।३।१०।१)। हे शमित: ! हवि (आहुति) पकी हुई है।
सिद्धि-शमिता। शम्+णिच् । शम्+इ। शाम्+इ। शमि+तृच् । शम्+तु। शम्+इट्+तृ। शम्+इ+तृ । शमितृ+सु। समिता।
यहां 'शमु उपशमें (दि०प०) धातु से प्रथम हेतुमति च' (३।१।२६) से णिच्’ प्रत्यय है। तत्पश्चात् णिजन्त शमि' धातु से ण्वुल्तृचौ' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय है। शेष मित्-संज्ञा और ह्रस्व आदि कार्य जनिता' (६।३ १५३) के समान है। उदाहरण में 'शमित:' सम्बुद्धि (सम्बोधन एकवचन) का रूप है। अय्-आदेशः
(१०) अयामन्ताल्वाय्येल्विष्णुषु।५५ । प०वि०-अय् १।१ आम्-अन्त-आलु-आय्य-इत्नु-इष्णुषु ७।३।
स०-आम् च अन्तश्च आलुश्च आय्यश्च इत्नुश्च इष्णुश्च तेआमन्ताल्वाय्येत्न्विष्णवः, तेषु-आमन्ताल्वाय्येत्न्विष्णुषु।