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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
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उदा० - चिकीर्षिता । करने का इच्छुक । चिकीर्षितुम् । करने की इच्छा के लिये. चिकीर्षितव्यम् । करने की इच्छा करनी चाहिये । धिनुत: । वे दोनों तृप्त करते हैं। कृणुत: । वे दोनों हिंसा करते हैं / करते हैं।
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सिद्धि - (१) चिकीर्षिता । चिकीर्ष+तृच् । चिकीर्ण+तृ। चिकीष्+इद्+तृ । चिकीर्षु +इ+तृ । चिकीर्षित+सु । चिकीर्षिता ।
यहां सन्नन्त 'चिकीर्ष' धातु से 'वुल्तृचौं' (३ | १ | १३३) से आर्धधातुक 'तृच्' प्रत्यय है और इसे 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७।२।३५ ) से 'इट्' आगम होता है। इस सूत्र से आर्धधातुक 'तृच्' प्रत्यय परे होने पर चिकीर्ष' धातु के 'अलोऽन्त्यस्य' (१1१142) से अन्तिम अकार का लोप होता है।
(२) चिकीर्षितुम् । यहां 'चिकीर्ष' धातु से 'तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् (३ 1३1९१०) से आर्धधातुक 'तुमुन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(३) चिकीर्षितव्यम् । यहां 'चिकीर्ष' धातु से 'तव्यत्तव्यानीयरः' (३/३ /७६) से आर्धधातुक 'तव्यत्' प्रत्यय है । शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(४) धिनुतः । धिन्व्+लट् । धिन्व्+तस्। धिन्व्+उ+तस्। धिन्अ+उ+तस् । धिन्०+उ+तस् । धिनुतः ।
यहां 'धिवि प्रीणनार्थ:' ( भ्वा०प०) धातु से 'धिन्विकृण्व्योर च' (३।१।८०) से 'उ' विकरण-प्रत्यय और 'धिन्व्' के वकार को अकार आदेश होता है। इस सूत्र से आर्धधातुक 'उ' प्रत्यय परे होने पर इस अन्तिम अकार का लोप होता है। ऐसे ही - 'कृवि हिंसाकरणयोश्च' (भ्वा०प०) धातु से - 'कृणुत: । यह धातु चकार से गत्यर्थक भी है।
लोपादेश:
(४) यस्य हलः । ४६ ।
प०वि० - यस्य ६ । १ हल: ५ । १ ।
अनु०-अङ्गस्य, आर्धधातुके, लोप इति चानुवर्तते । अन्वयः-हलो यस्य आर्धधातुके लोपः ।
अर्थ:-हल उत्तरस्य य-शब्दस्य आर्धधातुके परतो लोपो भवति । उदा० - बेभिदिता । बेभिदितुम्। बेभिदितव्यम्।
आर्यभाषाः अर्थ-(हल: ) हल् से परे (यस्य) य-शब्द को (आर्धधातुके) आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर (लोपः) लोप- आदेश होता है।