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________________ षष्टाध्यायस्य चतुर्थः पादः ५६१ उदा०-बेभिदिता । पुन:-पुन: अधिक भेदन (फाड़ना) करनेवाला। बेभिदितुम् । पुन:-पुन: अधिक भेदन करने के लिये। बेभिदितव्यम् । पुन:-पुन: अधिक भेदन करना चाहिए। सिद्धि-बेभिदिता । बेभिद्य+तृच् । बेभिद्य+तृ । बेभिद्य+इट्+तृ । बेभिद्+इ+तु। बेभिदितृ+सु । बेभिदिता। ____ यहां यडन्त 'बेभिद्य' धातु से ‘ण्वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय है और इसे 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७।२।३५) से इट्' आगम होता है। इस सूत्र से आर्धधातुक तृच्' प्रत्यय परे होने पर बेभिद्य' अंग के य-शब्द (य+अ) का संघात-रूप में ग्रहण किया गया है, अत: यहां 'अतो लोप:' (६।४।४८) से प्रथम अकार का लोप नहीं होता है अपितु इस सूत्र से संघात-रूप यकार और अकार का लोप होता है। (२) बेभिदितुम् । यहां यङन्त बेभिद्य' धातु से 'तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् (३।३।१०) से तुमुन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (३) बेभिदितव्यम् । यहां यङन्त बभिद्य' धातु से तव्यत्तव्यानीयरः' (३।१।१३३) से तव्यत्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। लोपादेश-विकल्प: (५) क्यस्य विभाषा।५०। प०वि०-क्यस्य ६१ विभाषा १।१।। अनु०-अङ्गस्य, आर्धधातुके, लोप:, हल इति चानुवर्तते। अन्वय:-हल: क्यस्य आर्धधातुके विभाषा लोपः। अर्थ:-अङ्गावयवाद् हल उत्तरस्य क्य-प्रत्ययस्य आर्धधातुके परतो विकल्पेन लोपो भवति। उदा०-आत्मन: समिधमिच्छति, समिद् इवाचरतीति वा-समिध्यिता, समिधिता। दृषद्यिता, दृषदिता। आर्यभाषा: अर्थ-(अङ्गस्य) अङ्ग के अवयव (हल:) हल् से परे (क्यस्य) क्यच् और क्यङ् प्रत्यय को (आर्धधातुके) आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर (विभाषा) विकल्प से (लोप:) लोपादेश होता है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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