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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषाः अर्थ- (जनसखनाम्) जन्, सन् और खन् (अङ्गानाम्) अंगों को (आत्) आकार आदेश होता है (सन्झलो: ) झलादि सन् और झलादि ( क्ङिति ) कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर ।
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उदा०-1 - (जन्) झलादि कित्- जातः । उत्पन्न हुआ। जातवान् । उत्पन्न हुआ । जाति: । उत्पन्न होना । (सन्) झलादि सनि-सिषासति । देवदत्त दान करना चाहता है। सातः । दान किया। सातवान् । दान किया । सातिः । दान करना। (खन् ) झलादि कित्-खातः । खोदा। खातवान् । खोदा। खातिः । खोदना ।
सिद्धि - (१) जात: । जन्+क्त । जन्+त। ज आ+त। जात+सु । जातः । यहां 'जनी प्रादुर्भावे' (दि०आ०) धातु से 'निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल अर्थ में 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'जन्' अंग को झलादि कित् 'क्त' प्रत्यय परे होने पर आकार आदेश होता है और वह 'अलोऽन्त्यस्य' (१1१1५२ ) से अन्तिम अल् नकार के स्थान में किया जाता है। ऐसे ही 'क्तवतु' प्रत्यय में- जातवान् ।
(२) जाति: । जन्+ क्तिन् । जन्+ति । ज आ+ति जाति+सु । जाति: ।
यहां पूर्वोक्त 'जन्' धातु से 'स्त्रियां क्तिन्' (३/३ । ९४ ) से क्तिन्' प्रत्यय हे। इस सूत्र से पूर्ववत् आकार आदेश होता है।
(३) सिषासति । सन्+सन् । स ओ+सन् । सा+सन्। सा सा+सन्। स सा+स । सिषाष । सिषास+ लट् । सिषास+तिप् । सिसाष+ शप्+ति । सिषास+अ+ति । सिषासति । यहां षणु दानें' (To30 ) धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३ 1१1७) से 'सन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'सन्' को झलादि सन् प्रत्यय परे होने पर आकार आदेश होता है। तत्पश्चात् 'सन्यङो:' ( ६ 1१1९ ) से 'सा' को द्वित्व होता है। 'सन्यत:' (७।४।७९) से अभ्यास के अकार को इकार आदेश और 'आदेशप्रत्यययोः ' ( ८1३1५९) से षत्व होता है । तत्पश्चात् सन्नन्त 'सिषास' धातु से लट् आदि कार्य होते हैं ।
(४) सात:, सातवान्, सातिः । षणु दाने' (त० उ० ) पूर्ववत् ।
(५) खात:, खातवान्, खाति: । खनु अवदारणे' (भ्वा०प०) पूर्ववत् ।
विशेष: यहां 'सञ्झलो:' से झलादि सन् और कित् प्रत्यय का ग्रहण किया जाता है। जन् और खन् धातुओं में 'सन्' को इट् आगम होने से झलादि 'सन्' उपलब्ध नहीं है। 'सन्' धातु में 'सनीवन्त०' ( ७ । २ । ४९ ) से 'सन्' प्रत्यय परे होने पर विकल्प से इट्-आगमविधि होने से झलादि सन् उपलब्ध हो जाता है। इट् पक्ष में- 'सिसनिषति' रूप बनता है ।