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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः (७) श्रितम् । श्री+क्त। श्रि+त। श्रित+सु । श्रितम्।
यहां 'श्री पाके' (क्रया उ०) धातु से पूर्ववत् क्त' प्रत्यय है। निपातन से 'श्री' को ह्रस्व आदेश होता है।
इस उक्त श्राभाव और श्रिभाव का वैयाकरण विषयविभाग चाहते हैं। सोम अर्थ के बहुवचन में श्राभाव और अन्यत्र श्रिभाव होता है।
(८) आशी: । आङ्+श्री+क्विप्। आ+श्री+वि। आ+शीर+0 / आशी:।
यहां आङ् उपसर्गपूर्वक 'श्री पाके' (क्रया०३०) धातु से 'क्विप च' (३।२१७६) से क्विप् प्रत्यय है। निपातन से 'श्री' के स्थान में शीर्' आदेश होता है।
(९) आशीर्तः । यहां आइ उपसर्गपूर्वक 'श्री' धातु से निष्ठा' (२।२।३६) से भूतकाल में निष्ठा-संज्ञक 'क्त' प्रत्यय है। निपातन से 'श्री' के स्थान में शीर्' आदेश और 'रदाभ्यां निष्ठातो न: पूर्वस्य च द:' (८।२।४२) से प्राप्त निष्ठा के तकार को नकार आदेश नहीं होता है। सम्प्रसारण-प्रतिषेधः
(२५) न सम्प्रसारणे सम्प्रसारणम्।३७। प०वि०-न अव्ययपदम्, सम्प्रसारणे ७१ सम्प्रसारणम् १।१। अनु०-धातोरित्यनुवर्तते। अन्वयः-सम्प्रसारणे धातो: सम्प्रसारणं न। अर्थ:-सम्प्रसारणे परत: पूर्वस्य यण: स्थाने सम्प्रसारणं न भवति । उदा०-(व्यध) विद्धः। (व्यच) विचितः। (व्येञ्) संवीत:।।
आर्यभाषा: अर्थ- (सम्प्रसारणे) सम्प्रसारण परे होने पर पूर्ववर्ती यण के स्थान में (धातो:) धातु को (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण (न) नहीं होता है।
उदा०-(व्यध) विद्धः । ताडित किया हुआ। (व्यच) विचितः । ठगा हुआ। (व्येञ्) संवीत: । आच्छादित किया हुआ।
सिद्धि-(१) विद्धः । व्यध्+क्त । व्य+त। व् इ अध्+त। विध+त। विध+ध । विद्+ध । बिद्ध+सु। विद्धः।
यहां व्यध ताडने' (दि०प०) धातु से 'निष्ठा' (२।२।३६) से निष्ठा-संज्ञक क्त' प्रत्यय है। 'अहिज्यावयिव्यधि०' (६।१।१६) से व्यध्' धातु के यकार को इकार सम्प्रसारण होता है। इस सूत्र से यकार को सम्प्रसारण होने पर उसके पूर्ववर्ती वकार' को सम्प्रसारण का प्रतिषेध होता है। 'झषस्तथोर्थोऽध' (८।२।४०) से निष्ठा के तकार को धकार और 'झलां जश् झशि' (८।४।५२) से धातुस्थ धकार को जश् धकार आदेश होता है।