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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ- (अनुदात्तोपदेश०) उपदिश्यमान अवस्था में अनुदात्त, वनति और तनोति आदि (अङ्ग्ङ्गस्य) अंगों के (अनुनासिकलोप: ) अनुनासिक का लोप होता है ( झलि ) झलादि ( क्ङिति ) कित् और ङित् प्रत्यय परे होने पर । ५७८ उदा०-(अनुदात्तोपदेश) रम् - रत्वा । खेलकर । रतः । खेला। रतवान्। खेला। रतिः । खेलना। (वनति ) वति: । सेवा करना । ( तनोत्यादि) तनु-ततः । विस्तार किया । ततवान् । विस्तार किया । क्षणु-क्षतः । हिंसा की । क्षतवान् । हिंसा की । ऋणु-ऋत:। गया। ऋतवान् । गया। तृणु-तृतः । दान किया। तृतवान् । दान किया। घृणु-घृतः।` चमका। घृतवान् । चमका। वनु- वतः । याचना की । वतवान् । याचना की। मनु-मतः । समझा। मतवान् । समझा। ङिति - अतत । अतथा: । सिद्धि - (१) रत्वा । रम्+क्त्वा। रम्+त्वा। र०+त्वा । रत्वा+सु । रत्वा । यहां 'रमु क्रीडायाम् ' (भ्वा०आ०) धातु से 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले' (३/४/२१) से 'क्त्वा' प्रत्यय है। इस सूत्र से अनुदात्तोपदेश (अनिट्) रम् धातु के अनुनासिक (म्) का झलादि 'क्त्वा' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। (२) रतः। रम्+क्त। रम्+त। र०+त। रत+सु । रतः । यहां पूर्वोक्त 'रम्' धातु से 'निष्ठा' (३ /२ 1१०२ ) से भूतकाल में 'क्त' प्रत्यय है । इस सूत्र से इस धतु के अनुनासिक का झलादि 'क्त' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। ऐसे ही क्तवतु में - रतवान् । (३) रतिः । रम्+क्तिन् । रम्+ति। र०+ति । रति+सु । रतिः । / यहां पूर्वोक्त ‘रम्' धातु से 'स्त्रियां क्तिन्ं' (३ । ३ ।९४) से 'क्तिन्' प्रत्यय है अनुनासिक - लोप कार्य पूर्ववत् है । (४) वति: । वन्+क्तिन् । वन्+ति । व०+ति । वति+सु । वतिः । यहां 'वन सम्भक्तौ' (भ्वा०प०) धातु से 'स्त्रियां क्तिन्' (३1३1९४ ) से क्तिन्' प्रत्यय है। यहां 'क्तिच्' प्रत्यय नहीं है क्योंकि 'क्तिच्' प्रत्यय में तो 'न क्तिचि दीर्घश्च' (६।४।३९) से अनुनासिक - लोप का प्रतिषेध है। अतत । (५) तत: । 'तनु विस्तारें (त०3० ) । (६) क्षत: । ' क्षणु हिंसायाम्' (त० उ० ) । (७) ऋत: । ऋणु गतौ (त० उ० ) । (८) वत: । 'वनु याचनें' (त०आ० ) । (९) मत: । 'मनु अवबोधने (त०आ० ) । (१०) अतत। तनू+लुङ् । अट्+तन्+च्लि+ल् । अ+तन्+सिच्+त | अ+त+व्त ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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