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अङ्गानि
६. नेष्ट
७. त्वष्टृ
८. क्षत्तृ ९. होतृ
१०. पोतृ
११. प्रशास्तृ
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
शब्दरूपम्
नेष्टा, नेष्टारौ, नेष्टारः ।
त्वष्टा, त्वष्टारौ, त्वष्टारः।
क्षत्ता, क्षत्तारौ, क्षत्तारः ।
होता होता होतार: ।
पोता पोतारौ पोतारः ।
भाषार्थ:
सोमयाग के १६ याज्ञिकों में से एक ।
यजुर्वेदज्ञ ऋत्विक् ।
बढई । विश्वकर्मा ।
मूर्तिकार ।
ऋग्वेदज्ञ ऋत्विक् ।
चतुर्वेदज्ञ ब्रह्मा ।
प्रशास्ता, प्रशास्तारौ, प्रशास्तारः । प्रशास्ता ( ऋत्विक् विशेष ) । आर्यभाषाः अर्थ-(अप्०प्रशास्तॄणाम्) अप्, तृन्-प्रत्ययान्त, तृच्-प्रत्ययान्त, स्वसृ, नप्तृ, नेष्ट, त्वष्टृ, होतृ, पोतृ और प्रशास्तृ अंगों की उपधा को (असम्बुद्धौ) सम्बुद्धि से भिन्न (सर्वनामस्थाने) सर्वनामस्थान संज्ञक प्रत्यय परे होने पर (दीर्घ) दीर्घ होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृतभाग में लिखा है।
सिद्धि - (१) आप: । अप्+जस् । अप्+अस्। आपस् । आपरु। आपर् । आपः । यहां 'अप्' शब्द से 'सु' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'अप्' अंग के उपधाभूत अकार को सर्वनामस्थान संज्ञक 'सु' प्रत्यय परे होने पर दीर्घ होता है।
(२) कर्ता । कृ+तृन् । कृ+तृ । कर्तृ+सु। कर्तृ अनङ्+सु । कर्तन्+सु । कर्तान्+सु । कर्तान् +0 | कर्ता० । कर्ता ।
यहां 'डुकृञ् करणे' (तना०3०) धातु से 'तृन्' (३ । २ । १३५) से 'तृन्' प्रत्यय है । 'ऋदुशनस् ०' (७।१।९५ ) से अनङ् आदेश है। इस सूत्र से तृन्नन्त अंग के उपधाभूत अकार को दीर्घ होता है । 'हल्डयाब्भ्यो दीर्घात् ०' (६ /१/६८) से 'सु' का लोप और 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' ( ८1२ 1७ ) से नकार का लोप होता है।
(३) कर्तारौ । कर्तृ+औ । कतर्+औ । कर्तार्+औ । कर्तारौ ।
यहां कर्तृ शब्द से औ प्रत्यय करने पर 'ऋतो ङिसर्वनामस्थानयो:' (७ । ३ ।११०) से ऋकार गुण अकार (अर्) होता है। इस सूत्र से तृन्नन्त कर्तर् अंग के उपधाभूत अकार को दीर्घ होता है। ऐसे ही कर्तारः ।
(४) कर्ता | यहां 'कृ' धातु से 'ण्वुल्तृचौं' (३|१ | १३३ ) से तृच्' प्रत्यय है । शेष कार्य तृन्नन्त 'कतृ' शब्द के समान है।
(५) स्वसा आदि पदों की सिद्धि कर्ता, कर्तारौ कर्तार: के समान है।