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________________ ३६ षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः बहुलं सम्प्रसारणम् (२२) बहुलं छन्दसि।३४। प०वि०-बहुलम् १।१ छन्दसि ७१। अनु०-धातो:, सम्प्रसारणम्, ह इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि हो धातोर्बहुलं सम्प्रसारणम् । अर्थ:-छन्दसि विषये हो धातोर्बहुलं सम्प्रसारणं भवति । उदा०-इन्द्राग्नी हुवे (ऋ० ५।४६।३)। देवी सरस्वतीं हुवे (सम्प्रसारणम्) । न च भवति-हयामि मरुत: शिवान्। हयामि विश्वान् देवान् (ऋ० ७ ।३४।८)। आर्यभाषा: अर्थ- (छन्दसि) वेदविषय में (ह:) हा (धातो:) धातु को (बहुलम्) प्रायश: (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण होता है। उदा०-इन्द्राानी हुवे (ऋ० ५ ॥४६॥३)। मैं इन्द्र और अग्नि देवता का आह्वान करता हूं। देवी सरस्वती हुवे। मैं सरस्वती देवी का आह्वान करता हूँ (सम्प्रसारण)। बहुल-वचन से कहीं सम्प्रसारण नहीं होता है-हयामि मरुत: शिवान् । मैं कल्याणकारी मरुत् देवताओं का आह्वान करता हूं। हयामि विश्वान् देवान् (ऋ० ७/३४८)। मैं सब देवताओं का आह्वान करता हूं। सिद्धि-(१) हुवे। ह्र+लट् । हा+इट् । हा+शप्+इ। हा+o+इ। ह् उ आ+इ । हु+ए। ह उवड्+ए। हुव्+ए। हुवे। यहां 'हे स्पर्धायां शब्दे च' (भ्वा० उ०) धातु से वर्तमाने लट्' (३।२।१२३) से लट् प्रत्यय, तिप्तस्झि०’ (३।४।७८) से लकार के स्थान में उत्तमपुरुष एकवचन में 'इट' आदेश, कर्तरि शप' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय और 'बहुलं छन्दसि' (२।४।७३) से 'शप्' का लुक होता है। इस सूत्र से 'हा' को सम्प्रसारण, सम्प्रसारणाच्च' (१।१।१०५) से आकार को पूर्वरूप एकादेश होकर 'अचि अनुधातुभ्रुवा०' (६ ।४।७७) से हु' को उवङ् आदेश और टित् आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से एत्व होता है। (२) हयामि । हे+लट् । हे+मिप् । हे+शाप्+मि। हे+अ+मि। हृय्+आ+मि। हयामि। यहां हेञ्' धातु को इस सूत्र से बहुल-पक्ष में सम्प्रसारण नहीं है। अतो दी? यजि' (७।३।१०१) से दीर्घ होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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