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सम्प्रसारणम्
पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
(२१) अभ्यस्तस्य च । ३३ ।
प०वि० - अभ्यस्तस्य ६ । १ च अव्ययपदम् । अनु० - धातोः सम्प्रसारणम् इति चानुवर्तते । अन्वयः-अभ्यस्तस्य च ह्वो धातो: सम्प्रसारणम् ।
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अर्थ:- अभ्यस्तस्य = अभ्यस्तनिमित्तस्य च हो धातोः सम्प्रसारणं भवति । उदा० - जुहाव ( लिट् ) । जोहूयते ( यङ) । जुहूषति (सन्) ।
आर्यभाषाः अर्थ- (अभ्यस्तस्य ) अभ्यस्त के निमित्त (ह:) हा (धातोः) धातु को (च) भी ( सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण होता है ।
उदा० - जुहाव (लिट्) । उसने स्पर्धा/शब्द किया। जोहूयते (यङ्)। वह पुनः-पुन स्पर्धा / शब्द करता है। जुहूषति (सन् ) । वह स्पर्धा/शब्द करना चाहता है।
सिद्धि - (१) जुहाव | हा+लिट् । हा+तिप् । हा+णल्। हा+अ । ह् उ आ+अ । हु+अ । हु+हु+अ । झु+हु+अ । जु+हु+अ । जु+हौ+अ । जुहाव् +अ । जुहाव ।
यहां' 'ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च' (भ्वा० उ०) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३1२1११५ ) से लिट् प्रत्यय, तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में तिप् आदेश और 'परस्मैपदानां णलतुसुस्०' ( ३।४।८२ ) से तिप् के स्थान में 'ण' आदेश होता है। 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६ 1१1८) से 'हा' धातु को द्वित्व प्राप्त होता है अत: अभ्य के निमित्त 'हा' धातु को द्विर्वचन से पूर्व ही इस सूत्र से सम्प्रसारण होता है। 'सम्प्रसारणाच्च' (६ 1१1१०५) से आकार को पूर्वरूप एकादेश होकर हु' को द्विर्वचन, 'कुहोश्चुः' (७/४/६२) से हकार को चवर्ग झकार और 'अभ्यासे चर्च (८/४/५३) से झकार जश् जकार होता है । 'अचो ञ्णिति' (७/२ ।११५ ) से हु' अंग को वृद्धि और 'एचोऽयवायाव:' (६।१/७६ ) आव् आदेश होता है।
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(२) जोहूयते। यहां 'हा' धातु से 'धातोरेकाचो०' (३ 1१/२२ ) से यङ् प्रत्यय है । 'सन्यङो:' ( ६ 1१1९ ) से 'हा' धातु को द्विर्वचन प्राप्त होता है अतः अभ्यस्त के निमित्त 'हा' धातु को द्विर्वचन से पूर्व ही इस सूत्र से सम्प्रसारण होता है । 'अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः' (७।४।२५) से हु' को दीर्घ होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(३) जुहूषति। यहां 'ह्वा' धातु से 'धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा' ( ३/१/७ ) से 'सन्' प्रत्यय है। 'सन्यङो:' ( ६ । १1९ ) से 'हा' धातु को द्वित्व प्राप्त है । अतः अभ्यस्त के निमित्त 'हा' धातु को द्विर्वचन से पूर्व ही इस सूत्र से सम्प्रसारण होता है। 'अज्झनगमां सनि' (६/४/१६ ) से हु' धातु को दीर्घ होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।