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षष्टाध्यायस्य तृतीयः पादः
५३५ उदा०-(सोम) सोमावती (ऋ० १० १९७१७)। सोमवाली। (अश्व) अश्वावती (ऋ० १०१९७७)। घोड़ोंवाली। (इन्द्रिय) इन्द्रियावती (तै०सं० २।४।२।१)। इन्द्रियोंवाली। (विश्वदेव्यम्) विश्वदेव्यावती (तै०सं० ४।१।६।१)। विश्वदेव्यवाली।
सिद्धि-सोमावती। यहां सोम शब्द से तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्' (५।१।१६) से मतुप् प्रत्यय है। मादुपधायाश्च मतोर्वोऽयवादिभ्यः' (८।२।९) से मतुप् के मकार को वकार आदेश होता है। प्रत्यय के उगित् होने से स्त्रीत्व-विवक्षा में 'उगितश्च (४।१।६) से 'डीप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से मन्त्र विषय में सोम शब्द के पूर्ववर्ती अण (अकार) को मतुप् प्रत्यय परे होने पर दीर्घ होता है। ऐसे ही-अश्वावती, इन्द्रियावती, विश्वदेव्यावती।
विशेष: यहां 'मतुस्' प्रत्यय है, अत: उत्तरपदें की अनुवृत्ति नहीं की जाती है। दीर्घः
(१८) ओषधेश्च विभक्तावप्रथमायाम् ।१३२।
प०वि०-ओषधे: ६१ च अव्ययपदम्, विभक्तौ ७।१ अप्रथमायाम् ७१।
स०-न प्रथमा इति अप्रथमा, तस्याम्-अप्रथमायाम् (नञ्तत्पुरुषः) । अनु०-संहितायाम्, पूर्वस्य, अण:, दीर्घ:, मन्त्रे इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां मन्त्रे ओषधेश्चाप्रथमायां विभक्तौ दीर्घः ।
अर्थ:-संहितायां मन्त्रे च विषये ओषधि-शब्दस्य च प्रथमावर्जितायां विभक्तौ परतो दीर्घो भवति।
उदा०-ओषधीभि: पुनीतात् (ऋ० १० १३० ।५)। नम: पृथिव्यै नम ओषधीभ्यः (तै०आ० २।१२।१)।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) संहिता और (मन्त्रे) मन्त्र विषय में (ओषधे:) ओषधि शब्द को (च) भी (अप्रथमायाम्) प्रथमा से भिन्न (विभक्तौ) विभक्ति परे होने पर (दीर्घ:) दीर्घ होता होता है।
उदा०-ओषधीभि: पुनीतात् (ऋ० १० १३० १५)। ओषधियों से स्वयं को पवित्र (स्वस्थ) करे। नमः पृथिव्यै नम ओषधीभ्यः (तै०आ० २।१२।१)। पृथिवी को नमस्कार, ओषधियों को नमस्कार अर्थात् उनका यथावत् उपयोग करना चाहिये।
सिद्धि-ओषधीभिः । ओषधि+भिस् । ओषधीभिरु। ओषधीभीर् । ओषधीभिः ।
यहां 'ओषधि' शब्द से 'स्वौजसः' (४।१।२) से भिस्' प्रत्यय है। भिस्' की विभक्तिश्च' (१।४।१०४) से विभक्ति संज्ञा है। इस सूत्र से मन्त्र विषय में ओषधि