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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) कोटरावणम् । यहां कोटर और वन शब्दों का 'षष्ठी (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से संज्ञाविषय में कोटर शब्द के पूर्ववर्ती अण् अकार का वन उत्तरपद होने पर दीर्घ होता है। वनं परगामिश्रकासारिकाकोटराग्रेभ्यः' (८।४।४) से वन' के नकार को णत्व होता है। ऐसे ही-मिश्रकावणम्, सिध्रकावणम्, सारिकावणम् ।
(२) किंशुलकागिरिः। यहां किंशुलका और गिरि शब्दों का पूर्ववत् षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से संज्ञाविषय में किंशुलक शब्द के पूर्ववर्ती अण् अकार को गिरि-शब्द उत्तरपद परे होने पर दीर्घ होता है। ऐसे ही-अञ्जनागिरिः।
विशेष: (१) कोटरावण-यह लखीमपुर जिले का कोई जंगल ज्ञात होता है जहां कोटरा नामक रियासत है। यहां अधिकतर साखू और शीशम के वृक्ष हैं।
(२) मिश्रकावण-यह नैमिषारण्य के पास वर्तमान मिसरिख ज्ञात होता है, जो अब नीमखार मिसरिख (सीतापुर से १३ मील दक्षिण) कहलाता है।
(३) सिधकावण-यह सिधक नाम की लकड़ियों का वन था। सामविधान ब्राह्मण में सैध्रकमयी समिधाओं को घी में डुबाकर सहस्र आहुतियों से हवन करने का उल्लेख है।
(४) सारिकावण-यह आर्वाचीन सारन (बिहार) का पुराना नाम जान पड़ता है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ४८)।
(५) किंशुलकागिरि-पलाश के वृक्षों का पहाड़। “भारत के उत्तर-पश्चिमी छोर पर अफगानिस्तान से बलूचिस्तान तक उत्तर-दक्खिन दौड़ती हुई पहाड़ों की जो ऊंची दीवार है, उसी की बड़ी चोटियों में से किसी का नाम” (पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ४८)।
(६) अञ्जनागिरि-त्रिककुत् पर्वत, जहां का प्रसिद्ध अंजन वैदिककाल से ही सारे पंजाब में जाता था। यही पाणिनि का अंजनागिरि है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ४८)। दीर्घः
(५) वले।११८ प०वि०-वले ७१।
अनु०-पूर्वस्य, दीर्घः, अण:, संहितायाम्, संज्ञायामिति चानुवर्तते। 'वलच्' इत्यत्र प्रत्ययोऽत उत्तरपदे' इति नानुवर्तते।
अन्वय:-संहितायां संज्ञायां पूर्वस्याणो वले दीर्घः ।
अर्थ:-संहितायां संज्ञायां च विषये पूर्वस्याणो वले परतो दी? भवति।
उदा०-दन्तावल:, कृषीवल:, आसुतीवल: ।