________________
५२२
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
'वाऽवसाने' (८/४/५५ ) से दकार को चर् तकार होता है। इस सूत्र से क्विन्त नत्-शब्द उत्तरपद होने पर पूर्ववर्ती उप के अण् अकार को दीर्घ होता है।
(२) परीणत् । यहां परि और नत् शब्दों का पूर्ववत् उपपदतत्पुरुष समास है । यहां नत् शब्द में 'णह बन्धने' (दि०प०) धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते' (३/२/७५) से ‘क्विप्' प्रत्यय है। ‘उपसर्गादसमासेऽपि गोपदेशस्य' (८|४|१४) से णत्व होता है । दीर्घ- कार्य पूर्ववत् है ।
(३) नीवृत्। यहां नि और वृत् शब्दों का पूर्ववत् प्रादितत्पुरुष समास है । 'वृत्' शब्द में 'वृतु वर्तने' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् क्विप्' प्रत्यय है। दीर्घ-कार्य पूर्ववत् है ।
(४) प्रावृट् । यहां प्र और वृट् शब्दों का पूर्ववत् प्रादितत्पुरुष समास है। 'वृषु सेचने' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्विप्' प्रत्यय है । 'झलां जशोऽन्ते' (८/२/३८) से वृष् के षकार को जश् डकार और 'वाऽवसाने' (८/४/५५) से डकार को चर् टकार होता है। दीर्घ- कार्य पूर्ववत् है ।
(५) मर्मावित्। यहां मर्म और वित् शब्दों का 'उपपदमतिङ्' (२।२1१९) से उपपदतत्पुरुष समास है। वित्' शब्द में 'व्यध ताडने' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् क्विप्' प्रत्यय है । 'प्रहिज्यावयिव्यधि० ' ( ६ । १ । १६ ) से 'व्यध्' धातु के यकार को इकार सम्प्रसारण होता है। धकार को पूर्ववत् जश् हकार और दकार को चर् तकार होता है। दीर्घ- कार्य पूर्ववत् है ।
(६) नीरुक् । यहां नि और रुक् शब्दों का पूर्ववत् प्रादितत्पुरुष समास है । रुक् - शब्द में 'रुच दीप्तौँ' (स्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् क्विप्' प्रत्यय है। 'रुच्' धातु चकार को 'चोः कुः' (८ / २ / ३०) से कुत्व ककार होता है। दीर्घ- कार्य पूर्ववत् है ।
के
(७) ऋतीषट् । यहां ऋति और षट् शब्दों का पूर्ववत् उपपदतत्पुरुष समास है । 'षट्' शब्द में 'षह मर्षणे (भ्वा०आ०) धातु पूर्ववत् क्विप्' प्रत्यय है । 'हो ढ: ' (८।२।३१) से 'सह' धातु के हकार को ढकार, 'झलां जशोऽन्ते' (८ 1२ 1३८) से ढकार को जश् डकार और 'वाऽवसाने' (८/४/५५) से डकार को चर् टकार होता है । ‘सहेः पृतनार्ताभ्यां च ́ (८ । ३ । १०९) में योगविभाग से 'सह' को षत्व होता है। दीर्घ-कार्य पूर्ववत् है ।
(८) परीतत् । यहां परि और तत् शब्दों का पूर्ववत् प्रादितत्पुरुष समास है । 'तत्' शब्द में 'तनु विस्तारे' (तना०प०) धातु से पूर्ववत् क्विप्' प्रत्यय है । वा०- 'गमादीनामिति वक्तव्यम्' (६।४।४०) से 'तन्' के अनुनासिक नकार का लोप तथा 'हस्वस्य पति कृति तुक्' (६।१।७१) से तुक् आगम होता है। दीर्घ-कार्य पूर्ववत् है ।