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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
एवमन्येऽपि-अश्वत्थ- कपित्थादयः शब्दा यथायोगमनुगन्तव्या: ।
आर्यभाषाः अर्थ-(पृषोदरादीनि ) जो पृषोदर आदि शब्द (यथोपदिष्टम् ) शिष्ट=विद्या पारंगत जनों के द्वारा यथा-उच्चारित हैं वे उसी रूप में साधु हैं। उदाहरण(१) पृषोदरम् | बिन्दुमान् उदरवाला ( मृगविशेष) । पृषोद्वानम् । बिन्दुमान् (बुलबुला ) वमन करनेवाला। यहां पृषत् के तकार का लोप है 1
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(२) बलाहकः । बादल। यहां 'वारिवाह' शब्द के वारि शब्द को ब - आदेश और वाह उत्तरपद के आदिम वकार को लकार आदेश है।
(३) जीमूतः । मेघ वा पर्वत। यहां जीवनमूत शब्द के 'वन' का लोप है।
(४) श्मशान । मरघट । यहां 'शवशयन' शब्द के शव को श्म और शयन को शान आदेश है।
(५) उलूखल | ऊखल। यहां 'ऊर्ध्वख' शब्द के ऊर्ध्व को उलू और ख को खल आदेश है।
(६) पिशाच । कच्चा मांस खानेवाला। यहां 'पिशिताश' शब्द के पिशित को पिश और आश को आच आदेश है।
(७) बृसी । यज्ञीय आसन । यहां षट्ट विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०) धातु से अधिकरण कारक में 'ड' प्रत्यय और ब्रुवत् उपपद को बृ-आदेश है।
(८) मयूरः । मही= पृथिवी पर शब्द करनेवाला मोर। यहां मही उपपद 'रु शब्द ( अदा०प०) धातु से पचादि अच् प्रत्यय, धातु के टि-भाग ( उ ) का लोप और मही को मयू आदेश है।
इस प्रकार अन्य अश्वत्थ और कपित्थ आदि शब्द भी जो कि शिष्ट जनों के द्वारा उपदिष्ट हैं, वे हमारे अनुगमनीय हैं।
शिष्टलक्षणम्
(१) एतस्मिन्नार्यनिवासे ये ब्राह्मणाः कुम्भीधान्या, अलोलुपा, अगृह्यमाणकारणा: किञ्चिदन्तरेण कस्याश्चिद् विद्यायाः पारगास्ते नत्रभवन्तः शिष्टाः ।
( महाभाष्यम् ६ । ३ । १०७ ) ।
(२) आविर्भूतप्रकाशानामनुपप्लुतचेतसाम् । अतीतानागतज्ञानं प्रत्यक्षान्न विशिष्यते । ।
अतीन्द्रियानसंवेद्यान् पश्यन्त्यार्षेण चक्षुषा ।
ये भावान् वचनं तेषां नानुमानेन बाध्यते।। (पदमञ्जरी ६ । ३ । १०७ ) ।