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षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः ___सo-मूर्धा च प्रभृतिश्च उदर्कश्च ते मूर्धप्रभृत्युदर्काः, न मूर्धप्रभृत्युदर्का इति अमूर्धप्रभृत्युदर्काः, तेषु-अमूर्धप्रभृत्युदर्केषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितनञ्तत्पुरुषः)।
अनु०-उत्तरपदे, स इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि समानस्य अमूर्धप्रभृत्युदर्केषु उत्तरपदेषु सः ।
अर्थ:-छन्दसि विषये समान-शब्दस्य स्थाने मूर्धप्रभृत्युदर्कवर्जितषु उत्तरपदेषु परत: स-आदेशो भवति।
उदा०-अनु भ्राता सगर्य: (यजु० ४।२०)। अनु सखा सयूथ्य: (यजु० ४।२०)। यो न: सनुत्य: (ऋ० २।३० ।९) ।
आर्यभाषा: अर्थ- (छन्दसि) वेदविषय में (समानस्य) समान शब्द के स्थान में (अमूर्धप्रभृत्युदर्केषु) मूर्धन्, प्रभृति और उदर्क से भिन्न (उत्तरपदेषु) उत्तरपद परे होने पर (स:) स-आदेश होता है।
. उदा०-अनु भ्राता सगW: (यजु० ४।२०)। हे मुनष्य ! तुझे सगय॑=सगा भाई विद्याप्राप्ति के लिये अनुमति प्रदान करे। अनु सखा सयूथ्य: (यजु० ४।२०)। एक समूह में रहनेवाला मित्र तुझे विद्या-प्राप्ति के लिये अनुमति प्रदान करे। यो न: सनुत्य: (ऋ० २।३०।९)। वह बृहस्पति विदज्ञ विद्वान्) हमारे लिये समान रूप से स्तुति के योग्य है।
सिद्धि-सगर्थ्यः। यहां समान और गर्भ शब्दों का पर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीराश्च' (२।१।५८) से कर्मधारय तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से वेदविषय में समान शब्द के स्थान में गर्भ उत्तरपद होने परे स-आदेश होता है। तत्पश्चात् 'सगर्भ' शब्द से 'सगर्भसयूथसनुताद् यन् (४।४।११४) से भव-अर्थ में यन्' प्रत्यय होता है। ऐसे ही-सयूथ' शब्द से-सयूथ्य:, और सनुत' शब्द से-सनुत्यः । स-आदेश:
(८) ज्योतिर्जनपदरात्रिनाभिनामगोत्ररूप
__ स्थानवर्णवयोवचनबन्धुषु।८५। प०वि०- ज्योतिर्-जनपद-रात्रि-नाभि-नाम-गोत्र-रूप-स्थान-वर्णवयस्-वचन-बन्धुषु ७।३।