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षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः
४३३ आर्यभाषा: अर्थ-(ऋत:) ऋकारान्त (विद्यायोनिसम्बन्धेभ्य:) विद्यासम्बन्धवाची और योनिसम्बन्धवाची शब्दों के (द्वन्द्वे) द्वन्द्व समास में (उत्तरपदे) उत्तरपद परे होने पर पूर्वपद को (आनङ्) आनङ् आदेश होता है।
उदा०-(विद्यासम्बन्ध) होतापोतारौ । होता और पोता। होता=ऋग्वेदज्ञ ऋत्विक् । पोता चतुर्वेदज्ञ ब्रह्मा। नेष्टोद्गातारौ। नेष्टा और उद्गाता। नेष्टा सोमयाग के १६ याज्ञिक ऋत्विक् । उद्गाता=सामवेदज्ञ विद्वान् । प्रशास्ताप्रतिहर्तारौ । प्रशास्ता और प्रतिहर्ता। प्रशास्ता होता ऋत्विक् का प्रधान सहायक इसे मैत्रावरुण भी कहते हैं। प्रतिहर्ता-१६ प्रकार के ऋत्विजों में से एक का नाम। (योनिसम्बन्ध) मातापितरौ । माता और पिता। याताननान्दरौ । याता और ननान्दा। याता=दोराणी-जेठानी। ननान्दा=नणन्द।
सिद्धि-होतापोतारौ। यहां होतृ और पोतृ शब्दों का चार्थे द्वन्द्वः' (२।२।२९) से द्वन्द्वसमास है। इस सूत्र से ऋकारान्त, विद्यासम्बन्धवाची होतृ और पोतृ शब्दों के इस द्वन्द्वसमासे पोत-शब्द उत्तरपद होने पर पूर्वपद के होत के ऋकार के स्थान में आन आदेश होता है। आनङ् आदेश के डित् होने से यह ङिच्च' (१।१ ।५३) से अन्त्य अल् (ऋ) के स्थान में होता है। 'आनङ्' आदेश में नकार अनुबन्ध के वचन से उरण रपरः' (११११५१) से रपरत्व नहीं होता है, क्योंकि ऋकार के स्थान में विधीयमान अण को रपरत्व होता है, अण् और अनण् को नहीं है। यहां ऋकार के स्थान में अकार और नकार आदेश अनण है।
होतृ+सु+पोतृ+सु। होत् आनङ्+सु+पोतृ+सु । होत् आन्+सु+पोतृ+सु। होताo+पोतृ। होतापोत औ। होतापोत् अर्+औ। होतापोत् आर्+औ। होतापोतारौ। यहां नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२।७) से नकार का लोप, ऋतो डिसर्वनामस्थानयोः' (७।३।११०) से गुण और 'अपतृन्तृच्छ' (६।४।११) से दीर्घ होता है। ऐसे ही-नेष्टोद्गातारौ आदि। आनङ्-आदेश:
(२) देवताद्वन्द्वे च ।२६। प०वि०-देवता-द्वन्द्वे ७।१ च अव्ययपदम्।
स०-देवतानां द्वन्द्व इति देवताद्वन्द्वः, तस्मिन्-देवताद्वन्द्वे (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-उत्तरपदे, आनङ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-देवताद्वन्द्वे चोत्तरपदे पूर्वपदस्याऽऽनङ् ।
अर्थ:-देवतावाचिनां शब्दानां च द्वन्द्वे समासे उत्तरपदे पूर्वपदस्याऽऽनङ् आदेशो भवति।