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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा:अर्थ- (तत्पुरुषे ) तत्पुरुष समास में (ऋत:) ऋकारान्त ( विद्यायोनिसम्बन्धेभ्यः) विद्यासम्बन्धवाची और योनिसम्बन्धवाची शब्दों से परे (षष्ठ्याः) षष्ठीविभक्ति का (स्वसृपत्योः) स्वसा और पति शब्द (उत्तरपदे ) उत्तरपद होने पर ( विभाषा) विकल्प से (अलुक् ) अलुक् होता है। ४३२ उदा०- - ( स्वसा ) मातुःष्वसा, मातृस्वसा, मातृष्वसा । माता की बहिन = मासी | (पति) दुहितुःपतिः, दुहितृपतिः । पुत्री का पति = दामाद । ननान्दुःपतिः, ननान्दूपतिः । नन्द का पति = नणदोइया । यहां स्वसृ और पति उत्तरंपद के कथन से योनिसम्बन्ध का सम्भव है, विद्यासम्बन्ध का नहीं । एकपद के बल से 'विद्या' पद की भी अनुवृत्ति दिखाई गई है। सिद्धि मातुःस्वसा । यहां मातृ और स्वसृ शब्दों का षष्ठी (२/२/८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से योनिसम्बन्धवाची ऋकारान्त मातृ-शब्द से परे षष्ठीविभक्ति का स्वसृ शब्द उत्तरपद होने पर अलुक् होता है। विकल्प पक्ष में 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो:' ( २/४ /७१ ) से षष्ठीविभक्ति क लुक् होता है - मातृस्वसा । 'मातुः पितुर्भ्यामन्यतरस्याम्' (८।३।८५) से विकल्प से षत्व भी होता है-मातुःष्वसा । ऐसे ही पितुःस्वसा आदि । ।। इति विभक्ति - अलुक्प्रकरणम् ।। आदेश-प्रकरणम् आनङ्-आदेशः (१) आनङ् ऋतो द्वन्द्वे । २५ । प०वि० - आनङ् १।१ ऋत: ६।१ द्वन्द्वे ७।१। अनु० - उत्तरपदे, विद्यायोनिसम्बन्धेभ्य इति चानुवर्तते । अन्वयः - ऋतो विद्यायोनिसम्बन्धानां द्वन्द्वे उत्तरपदे पूर्वपदस्य आनङ् । अर्थ:-ऋकारान्तानां विद्यासम्बन्धवाचिनां योनिसम्बन्धवाचिनां च शब्दानां द्वन्द्वे समासे उत्तरपदे पूर्वपदस्यानङ् आदेशो भवति । उदा०- ( विद्यासम्बन्ध : ) होता च पोता च तौ होतापोतारौ । नेष्टोद्गातारौ । प्रशास्ताप्रतिहर्तारौ । (योनिसम्बन्धः ) माता च पिता च तौ मातापितरौ । याताननान्दरौ ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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