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________________ ४२३ षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः अन्वय:-तत्पुरुषे सप्तम्या कृति उत्तरपदे बहुलम् अलुक् । अर्थ:-तत्पुरुष समासे सप्तम्या: कृदन्ते उत्तरपदे बहुलम् अलुग् भवति। उदा०-स्तम्बे रमते इति स्तम्बेरमः। कर्णे जपतीति कर्णेजपः । बहुलवचनान्न च भवति-मद्रेषु चरतीति मद्रचर: । कुरुषु चरतीति कुरुचरः । आर्यभाषा: अर्थ-(तत्पुरुषे) तत्पुरुष समास में (सप्तम्या:) सप्तमी विभक्ति का (कृति) कृदन्त शब्द (उत्तरपदे) उत्तरपद होने पर (बहुलम्) प्रायश: (अलुक्) लुक् नहीं होता है। उदा०-स्तम्बेरमः । वृक्षों की शाखा अथवा घास में रमण करनेवाला हाथी। हाथी घास नामक एक प्रसिद्ध घास है। कर्णेजपः। कान में कुछ कहनेवाला-चुगलखोर। बहुलवचन से कहीं सप्तमी विभक्ति का अलुक् नहीं होता है-मद्रचरः। मद्र देश में घूमनेवाला पुरुष । कुरुचरः । कुरु देश में घूमनेवाला पुरुष । सिद्धि-स्तम्बेरमः । यहां स्तम्ब और रम शब्दों का उपपदमतिङ्' (२।२।१९) से उपपदतत्पुरुष समास है। स्तम्बकर्णयोरमिजपोः' (३।२।१३) से स्तम्ब उपपद होने पर रमु क्रीडायाम्' (भ्वा०आ०) धातु से कृत्संज्ञक 'अच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इस उपपद तत्पुरुष समास में सप्तमी विभक्ति का कृदन्त रम' उत्तरपद होने पर लुक् नहीं होता है। ऐसे ही-कर्णेजपः। बहुलं सप्तमी-अलुक् (१५) प्रावृटशरत्कालदिवां जे।१५। प०वि०-प्रावृट-शरत्-काल-दिवाम् ६।३ जे ७।१। स०-प्रावृट् च शरच्च कालश्च द्यौश्च ता:-प्रावृट्शरत्कालदिव:, तासाम्-प्रावृट्शरत्कालदिवाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-अलुक्, उत्तरपदे, सप्तम्या:, तत्पुरुषे इति चानुवर्तते। अन्वय:-प्रावृट्शरत्कालदिवां सप्तम्या जे उत्तरपदेऽलुक् । अर्थ:-तत्पुरुष समासे प्रावृटशरत्कालदिवां शब्दानां सप्तप्या ज-शब्दे उत्तरपदेऽलुग् भवति। उदा०-(प्रावृट) प्रावृषि जात इति प्रावृषिज: । (शरत्) शरदिजः । (काल:) कालेजः । (दिव्) दिविजः ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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