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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-कण्ठेकाल: । वह पुरुष कि कण्ठ में काल स्थित है, मरणासन्न पुरुष। उरसिलोमा। वह पुरुष कि जिसके उर:स्थल (छाती) पर रोम स्थित है। उदरेमणिः । वह पुरुष कि जिसके उदर में मणि स्थित है।
सिद्धि-कण्ठेकालः। यहां कण्ठ और काल शब्दों का वाo-'सप्तम्युपमानपूर्वपदस्योत्तरपदलोपश्च वक्तव्यः' (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से स्वाङ्गवाची कण्ठ शब्द से परे सप्तमी विभक्ति का काल उत्तरपद होने पर लुक नहीं होता है। ऐसे ही-उरसिलोमा, उदरेमणिः । सप्तमी-अलुग्विकल्प:
(१३) बन्धे च विभाषा।१३। प०वि०-बन्धे ७१ च अव्ययपदम्, विभाषा ११ । अनु०-अलुक्, उत्तरपदे, हलदन्तात्, सप्तम्या इति चानुवर्तते । अन्वय:-हलदन्तात् सप्तम्या बन्धे चोत्तरपदे विभाषाऽलुक् ।
अर्थ:-हलदन्तात् अदन्ताच्च परस्या: सप्तम्या बन्धे चोत्तरपदे विकल्पेनाऽलुग् भवति।
उदा०-हस्ते बन्ध इति हस्तबन्धः, हस्तेबन्धः । चक्रे बन्ध इति चक्रबन्ध:, चक्रेबन्धः।
आर्यभाषा: अर्थ-(हलदन्तात्) हलन्त और अकारान्त शब्द से परे (सप्तम्या:) सप्तमी विभक्ति का (बन्धे) बन्ध शब्द (उत्तरपदे) उत्तरपद होने पर (च) भी (विभाषा) विकल्प से (अलुक्) लुक नहीं होता है।
उदा०-हस्तबन्धः, हस्तेबन्धः । हाथ में बन्ध। चक्रबन्धः, चक्रेबन्धः । चक्र में बन्ध।
सिद्धि-हस्तबन्धः। यहां हस्त और बन्ध शब्दों को सिद्धष्कपक्वबन्धैश्च (२।१।४१) से सप्तमी तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से अकारान्त हस्त शब्द से परे सप्तमी विभक्ति का बन्ध उत्तरपद होने पर विकल्प पक्ष में लुक् होत है और पक्ष में सप्तमी विभक्ति का लुक् नहीं होता है-हस्तेबन्धः । ऐसे ही-चक्रबन्धः, चक्रेबन्धः । बहुलं सप्तमी-अलुक्
(१४) तत्पुरुषे कृति बहुलम् ।१४। प०वि०-तत्पुरुषे ७।१ कृति ७१ बहुलम् १।१। अनु०-अलुक्, उत्तरपदे, सप्तम्या इति चानुवर्तते।