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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् में अनु-उपसर्ग से परे अप्रधानवाची ज्येष्ठ उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही-अनुमध्यमः।
(२) अनुकनीयान् । यहां अनु और कनीयान् शब्दों का 'कुगतिप्रादय:' (२।२।१८) से उत्तरपदार्थ प्रधान प्रादिसमास है। सूत्र में कनीयस्-शब्द का पाठ उत्तरपदार्थ की प्रधानता के लिये है। इस सूत्र से इस समास में अनु-उपसर्ग से परे कनीयस् उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। अन्तोदात्तम्
(४८) पुरुषश्चान्वादिष्टः ।१६० । प०वि०-पुरुषः ११ च अव्ययपदम्, अन्वादिष्ट: ११ ।
अनु०-उदात्त:, उत्तरपदम्, अन्त:, समासे, उपसर्गात्, अनोरिति चानुवर्तते।
अन्वयः-समासेऽनोरुपसर्गाद् अन्वादिष्ट: पुरुष उत्तरपदम् अन्त उदात्त:।
अर्थ:-समासमात्रेऽनोरुपसर्गात् परम् अन्वादिष्टवाची पुरुष इत्युत्तरपदम् अन्तोदात्तं भवति।
उदा०-अन्वादिष्ट: पुरुष इति अनुपुरुषः । “अनादिष्ट: अन्वाचित: कथितानुकथितो वा” (काशिका)। __ आर्यभाषा: अर्थ-(समासे) समासमात्र में (अनोः) अनु (उपसर्गात्) उपसर्ग से परे (अन्वादिष्टः) अप्रधान शिष्ट अथवा कथितानुकथितवाची (पुरुष:) पुरुष (उत्तरपदम्) उत्तरपद को (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है।
उदा०-अनुपुरुषः । अन्वाचित पुरुष अर्थात् जैसे 'कर्तुः क्यङ् सलोप:' (३।१।११) इस सूत्र में सकार का लोप अप्रधानशिष्ट है यदि शब्द में सकार हो तो लोप हो जाता है इसी प्रकार से जो पुरुष किसी कार्य में अप्रधानशिष्ट होता है उसे अन्वादिष्ट पुरुष कहते हैं। अथवा एक प्रधान कथन में जो गौण कथन किया जाता है उसे अन्वादिष्ट% कथितानुकथित कहते हैं जैसे-'भिक्षामट गौ चानय' हे शिष्य ! तू भिक्षाटन कर और गौ भी ले आ। यहां भिक्षाटन कथन प्रधान और गो-आनयन अप्रधान है। इस प्रकार से आदिष्ट पुरुष को अन्वादिष्ट पुरुष कहते हैं।
सिद्धि-अनुपुरुषः । यहां अनु और पुरुष शब्दों का 'कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से प्रादितत्पुरुष समास है। इस सूत्र से इस समास में अनु-उपसर्ग से परे अन्वादिष्टवाची पुरुष उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है।