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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-प्रपृष्ठः । यहां प्र और पृष्ठ शब्दों का ‘अनेकमन्यपदार्थे (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से इस बहुव्रीहि समास में प्र-उपसर्ग से परे ध्रुव (एकरूप) स्वाङ्गवाची पृष्ठ उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही-प्रोदरः, प्रललाटः ।
पशु के निषेध से यहां अन्तोदात्त स्वर नहीं होता है-उत्पशु, विपर्छ । पशु-पसली। अन्तोदात्तम्
(३६) वनं समासे।१७८। प०वि०-वनम् ११ समासे ७।१। अनु०-उदात्त:, उत्तरपदम्, अन्तः, उपसर्गादिति चानुवर्तते। अन्वय:-समासे उपसर्गाद् वनम् उत्तरपदम् अन्त उदात्त: । अर्थ:-समासमात्रे उपसर्गात् परं वनमित्युत्तरपदम् अन्तोदात्तं भवति ।
उदा०-प्रकृष्टं वनमिति प्रवणम्। प्रवणे यष्टव्यम् । निर्गतं वनादिति निर्वणम्। निर्वणे प्रणिधीयते।
आर्यभाषा: अर्थ- (समासे) समास मात्र में (उपसर्गात्) उपसर्ग से परे (वनम्) वन-शब्द (उत्तरपदम्) उत्तरपद (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है।
उदा०-प्रवणम् । इस पद का यौगिक अर्थ प्रकृष्ट वन है किन्तु यह नीचा अर्थ में रूढ है। प्रवणे यष्टव्यम् । पूर्व दिशा की ओर निम्न यज्ञकुण्ड में यज्ञ करना चाहिये। प्राक्प्रवण-पूर्व दिशा में नीची यज्ञवेदिका बनाने का विधान है। निर्वणम् । इस पद का यौगिक अर्थ वन से निकला हुआ है किन्तु यह चारों ओर सम-भूमि अर्थ में रूढ है। निर्वणे प्रणिधीयते । चारों ओर सम-भूमि पर ईश्वर-प्रणिधान किया जाता है।
सिद्धि-प्रवणम् । यहां प्र और वन शब्दों का कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से प्रादि-तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से इस तत्पुरुष समास में प्र-उपसर्ग से परे वन उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। प्रनिरन्तःशरेक्षुप्लक्षाम्राकार्घ्यखदिरपीयूक्षाभ्योऽसंज्ञायामपि' (८।४।५) से वन-शब्द के नकार को णकार आदेश होता है। ऐसे ही-निर्वणम्। अन्तोदात्तम्
(३७) अन्तः ।१७६ वि०-अन्त: अव्ययपदम्। अनु०-उदात्त:, उत्तरपदम्, अन्त:, वनम्, समासे इति चानुवर्तते । अन्वयः-समासेऽन्तर्वनम् उत्तरपदम् अन्त उदात्त: ।