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________________ ३८८ प्रकृतिस्वर होता है । 'दन्त' शब्द 'स्वाङ्गशिष्टानामदन्तानाम्' (फिट्० २।६ ) से अन्तोदात्त है - दन्तजात: । ऐसे ही - स्तनजाता । स्तनेजाता । पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम् (२) मासजात: । यहां मास और जात शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है । विकल्प पक्ष में मास पूर्वपद को पूर्ववत् प्रकृतिस्वर होता है । मास शब्द में 'मसी परिमाणे ' (दि०प०) धातु से 'हल' (३ । ३ । १२१) से करणकारक में 'घञ्' प्रत्यय है। प्रत्यय के ञित् होने से यह 'नित्यादिर्नित्यम्' (६ । १ । १९७) आद्युदात्त है - मासेजात: । शेष कार्य पूर्ववत् है । (३) संवत्सरजात: । यहां संवत्सर और जात शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है । विकल्प पक्ष में संवत्सर पूर्वपद को पूर्ववत् प्रकृतिस्वर होता है। संवत्सर शब्द में सम्-उपसर्गपूर्वक 'वस निवासे' (भ्वा०प०) धातु से 'सम्पूर्वाच्चित्' (उणा० ३ /७२ ) से सर-प्रत्यय है। अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है- संवत्स॒रजा॑तः । शेष कार्य पूर्वोक्त है। (४) सुखजात: । यहां सुख और जात शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है । विकल्प पक्ष में सुख पूर्वपदको पूर्ववत् प्रकृतिस्वर होता है। सुख- शब्द में सु-उपसर्ग पूर्वक 'खनु अवदारणे' ( वा०प०) धातु से 'अन्येष्वपि दृश्यते' (३ 1 २ 1१०१ ) से 'ड' प्रत्यय है अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है - सुखेजात: । ऐसे ही - दुःखजातः, दु:खेजातः । अन्तोदात्तम् भवति । (३०) नञ्सुभ्याम् । १७२ । प०वि० - नञ् - सुभ्याम् ५।२ । स०- नञ् च सुश्च तौ- नञ्सू, ताभ्याम् - नञ्सुभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-उदात्त:, उत्तरपदम्, अन्तः, बहुव्रीहाविति चानुवर्तते । अन्वयः - बहुव्रीहौ नञ्सुभ्याम् उत्तरपदम् अन्त उदात्तः । अर्थ:- बहुव्रीहौ समासे नञ्सुभ्यां शब्दाभ्यां परम् उत्तरपदम् अन्तोदात्तं उदा०- (नञ्) न विद्यन्ते यवा यस्मिन् सः - अयवो देश: । अव्रीहिर्देशः । अमाषो देश: । (सुः) शोभना यवा यस्मिन् सः - सुय॒वो देश: । सुव्रीहिर्देश: । सुमाषो देश: । आर्यभाषाः अर्थ- (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में ( नञ्सुभ्याम्) नञ् और सु- शब्दों से परे (उत्तरपदम्) उत्तरपद में (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है। उदा० - (नञ्) अयवो देश: । वह देश जिसमें यव= जौ नहीं होते हैं । अव्रीहिर्देश: । वह देश जिसमें व्रीहि-चावल नहीं होते हैं। अमाषो देश: । वह देश जिसमें माष= उड़द नहीं
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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