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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
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स्थूलं मुखं यस्य सः-स्थूलर्मुखः । (मुष्टिः ) मुष्टिरिव मुखं यस्य सः-मुष्टिर्मुखः । (पृथु ) पृथु मुखं यस्य सः - पृथुर्मुखः । ( वत्सः ) वत्स इव मुखं यस्य सः- व॒त्सर्मुखः ।
आर्यभाषा: अर्थ - (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (अव्यय० वत्सेभ्यः) अव्यय, दिशावाची शब्द, गौ, महत्, स्थूल, मुष्टि, पृथु और वत्स शब्दों से परे (स्वाङ्गम् ) स्वाङ्गवाची (मुखम् ) मुख-शब्द (उत्तरपदम्) उत्तरपद में (अव्यय) अन्तोदात्त (न) नहीं होता है।
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उदा०- - (अव्यय) उच्चैर्मुखः । ऊंचा है मुख जिसका वह पुरुष । नीचैर्मुखः । नीचा मुख जिसका वह पुरुष । (दिक्शब्द ) प्राङ्मुखः । पूर्व दिशा की ओर है मुख जिसका वह उपासक । प्र॒त्यङ्खः । पश्चिम दिशा की ओर है मुख जिसका वह उपासक । ( गौ) गोमुखः । गौ के मुख के समान है मुख जिसका वह पुरुष । (महत्) म॒हार्मुखः । महान्=बड़ा है मुख जिसका वह पुरुष । (स्थूल) स्थूलमुखः । मोटा है मुख जिसका वह पुरुष। (मुष्टि) मुष्टिर्मुखः । मुट्ठी के समान है मुख जिसका वह पुरुष। (पृथु) पृथुर्मुखः । पृथु के समान है मुख जिसका वह पुरुष । ( वत्स ) व॒त्सर्मुखः । बच्चे के समान है मुख जिसका वह पुरुष ।
सिद्धि - (१) उच्चैर्मुखः । यहां उच्चैस् और मुख शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे' (२/२/२४.) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से बहुव्रीहि समास में उच्चैस् अव्यय से परे स्वाङ्गवाची 'मुख' शब्द उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर का प्रतिषेध होता है । अत: 'बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्' (६ / २ /२ ) से 'उच्चैस्' शब्द 'स्वरादिनिपातमव्ययम्' (१1१1३७ ) से अव्यय है और यह वह स्वरादिगण में अन्तोदात्त पठित है। ऐसे ही - नीचैर्मुखः ।
(२) प्राङ्मुखः । यहां प्राक् और मुख शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। बहुव्रीहि समास में 'अनिगन्तोऽञ्चतौ वप्रत्ययें (६/२/५२ ) से प्राक् - शब्द को पूर्वपद प्रकृतिस्वर होता है। प्राक् - शब्द में प्र-शब्द 'उपसर्गाश्चाभिवर्जम्' (फिट्० ४ । १३) से आद्युदात्त है। इस प्रकार 'प्राक्' शब्द आद्युदात्त है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(३) प्र॒त्यङ्मुखः । यहां प्रत्यक् और मुख शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है । प्रत्यक् शब्द में प्रति-उपसर्गपूर्वक 'अञ्चु गतौं' (भ्वा०प०) धातु से ऋत्विग्दधृक्०' (३/२/५९ ) से 'क्विन्' प्रत्यय है। 'गतिकारकोपदात् कृत्' (६ / २ /१३९) से गतिसंज्ञक प्रति-शब्द से परे अक् कृदन्त को पूर्वोक्त नित् प्रत्यय होने से 'नित्यादिर्नित्यम्' (६ 1१1१९७) से आद्युदात्त होता है। इस प्रकार प्रत्यक शब्द अन्तोदात्त है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(४) गौमुख: । यहां गो और मुख शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। गो शब्द 'गत' ( वा०प०) धातु से 'गमेर्डी' (उणा० २ / ६८ ) से 'डो' प्रत्यय है । अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है।