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षष्टाध्यायस्य द्वितीयः पादः
३५६ (३) आवसथः । यहां आङ् और वसथ शब्दों का पूर्ववत् गति-तत्पुरुष समास है। 'वसथ:' शब्द में 'उपर्गे वसे:' (उणा० ३ ।११६) से अथन् (अथ) प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-उपवसथः।
(४) प्रभेद: । यहां प्र और भेद शब्दों का पूर्ववत् गति-तत्पुरुष समास है। भेद शब्द में 'भिदिर् विदारणे (रुधा०प०) धातु से 'भावे' (३।३।१८) से भाव-अर्थ में घञ् प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(५) काष्ठभेद: । यहां काष्ठ और भेद शब्दों का उपपदमतिङ्' (२।२।१९) से उपपद तत्पुरुष समास है। भेद शब्द में पूर्ववत् 'घञ्' प्रत्यय है। ऐसे ही-रज्जुभेदः ।
(६) दूरादागतः । यहां दूरात् और आगत शब्दों का स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन' (२।१।३८) से पञ्चमीतत्पुरुष समास है। 'पञ्चम्या: स्तोकादिभ्यः' (६ ।३।२) से पञ्चमी विभक्ति का अलुक् होता है। आगतः' शब्द में आङ् उपसर्गपूर्वक 'गम्ल गतौ (भ्वा०प०) धातु से 'निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल अर्थ में क्त-प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(७) विशुष्कः । यहां वि और शुष्क शब्दों का 'गतिकारकोपपदात् कृत्' (६।२।१३२) से गति-तत्पुरुष समास है। 'शुष्क' शब्द में 'शुष शोषणे' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् क्त-प्रत्यय है। 'शुषः कः' (८।२।५१) से क्त' प्रत्यय के तकार को ककार आदेश होता है। वहां गतिरनन्तरः' (६।२।४९) से पूर्वपद प्रकृतिस्वर (आधुदात्त) प्राप्त था। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(८) आतपशुष्कः । यहां आतप और शुष्क शब्दों का सिद्धशुष्कपक्वबन्धैश्च' (२।१।४०) से सप्तमीतत्पुरुष समास है। यहां 'सप्तमी सिद्धशुष्कपक्वबन्धेष्वकालात् (६ ।२।३२) से पूर्वपद प्रकृतिस्वर प्राप्त था।
(९) प्रक्षयः । यहां प्र और क्षय शब्दों का पूर्ववत् गति-तत्पुरुष समास है। 'क्षयः' शब्द में 'क्षि क्षये' (भ्वा०प०) धातु से 'एरच (३।३।५६) से 'अच्' प्रत्यय है। ऐसे ही-प्रजयः । यहां 'गतिकारकोपपदात् कृत्' (६।१।१३८) से प्रकृतिस्वर की प्राप्ति होकर क्रमश: 'क्षयो निवासे' (६।१।१९५) से तथा जय: करणम्' (६।१।१९६) से आधुदात्त स्वर प्राप्त था।
(१०) प्रलव: । यहां प्र और लव शब्दों का पूर्ववत् गति-तत्पुरुष समास है। 'लव' शब्द में 'लञ् छेदने (क्रया०उ०) धातु से ऋदोरम्' (३।३ ।५७) से अप् प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही- 'षूङ् प्राणिगर्भविमोचने (अदा०आ०) से-प्रसवः ।
(११) प्रलवित्रम् । यहां प्र और लवित्र शब्दों का पूर्ववत् गति-तत्पुरुष समास है। 'लवित्र' शब्द में 'अर्तिलूधूसूखनसहचर इत्र:' (७।३।२६) से 'इत्र' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही पूर्वोक्त पूञ्' धातु से-प्रसवित्रम् ।