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षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः
३५७ गतौ (भ्वा०प०) धातु से 'अङ्गेर्नलोपश्च' (उणा० ४।५१) से नि' प्रत्यय है। अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त अर्थात् अनुदात्तादि है-अग्निः। देवताद्वन्द्वे च' (६।३।२६) से पूर्ववत् आनङ् आदेश होता है। समासस्य (६।१।२१८) से समास को अन्तोदात्त स्वर होता है।
(२) इन्द्रवायू । यहां इन्द्र और वायु शब्दों का पूर्ववत् द्वन्द्वसमास है। वायु शब्द में 'वा गतिगन्धनयो:' (अदा०प०) धातु से कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण' (उणा० १।१) से 'उण्' प्रत्यय है। अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त अर्थात् अनुदात्तादि है-वायुः । वा०- उभयत्र वायो: प्रतिषेधो वक्तव्यः' (६।३ ।२६) से आनङ् आदेश का प्रतिषेध होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
।। इति उत्तरपदप्रकृतिस्वरप्रकरणम् ।।
उत्तरपदान्तोदात्तस्वरप्रकरणम् अधिकार:
(१) अन्तः ।१४३। वि०-अन्त: ११। अनु०-समासस्य, उदात्त:, उत्तरमिति चानुवर्तनीयम् । अन्वय:-समासस्य उत्तरपदम् अन्त उदात्त:।।
अर्थ:-अन्त इत्यधिकारोऽयम् आ पादपरिसमाप्ते: । यदितोऽग्रे वक्ष्यति तत्र समासस्योत्तरपदस्यान्तोदात्तो भवतीति वेदितव्यम्। यथा वक्ष्यति'थाथघक्ताजबित्रकाणाम्' (६।२।१४४) इति। सुनीथः । अवभृथ: इत्यादिकम्।
आर्यभाषा: अर्थ- (अन्त:) 'अन्तः' इस सूत्र का पाद की समाप्तिपर्यन्त अधिकार है। पाणिनि मुनि जो इससे आगे कहेंगे वहां (समासस्य) समास के (उत्तरपदम्) उत्तरपद को (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है, यह जानें। जैसे कि पाणिनि मुनि कहेंगे'थाथघक्ताजबित्रकाणाम्' (६।२।१४४)। सुनीथः । अवभृथ: इत्यादि।
सिद्धि-सुनीथ: आदि पदों की सिद्धि आगे यथास्थान लिखी जायेगी। अन्तोदात्तम्
(२) थाथघऋक्ताजबित्रकाणाम्।१४४। प०वि०-थ-अथ-घञ्-क्त-अच-अप्-इत्र-काणाम् ६ ।३ ।