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________________ ३५६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् इन्द्र+सोम+औ। इन्द्र् आनङ्+सोम+औ । इन्द्र्+आन्+सोम+औ। इन्द्+आ+सोम+औ । इन्द्रासोमौ । यहां 'देवताद्वन्द्वे च' (६ 1३ 1 १२५ ) से इन्द्र शब्द के अन्त्य अकार को आनङ् आदेश होकर 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' ( ८12 12 ) से नकार का लोप होता है। ऐसे ही अन्य उदाहरणों में भी समझें । (२) इन्द्रा॒वरु॑णौ । यहां इन्द्र और वरुण शब्दों का पूर्ववत् इतरेतरयोगद्वन्द्व समास है। वरुण शब्द में कृवृदात्रिभ्य उनन्' (उणा० ३1५३) से उनन् प्रत्यय है। प्रत्यय के नित् होने से यह पूर्ववत् आद्युदात्त है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (३) इन्द्रबृह॒स्पती' । 'हां इन्द्र और बृहस्पति शब्दों का पूर्ववत् इतरेतरयोगद्वन्द्व समास है। बृहस्पति शब्द का स्वर पूर्वोक्त (६ । २ । १४०) है। प्रकृतिस्वरप्रतिषेधः (६) नोत्तरपदे ऽनुदात्तादावपृथिवीरुद्रपूषमन्थिषु । १४२ । प०वि०-न अव्ययपदम्, अनुदात्तादौ ७ । १ अपृथिवी-रुद्र-पूषमन्थिषु ७ । ३ । स०-अनुदात्त आदौ यस्य सः - अनुदात्तादि:, तस्मिन्-अनुदात्तादौ ( बहुव्रीहि: ) । पृथिवी च रुद्रश्च पूषा च मन्थी च ते पृथिवीरुद्रपूषमन्थिनः, तेषु-पृथिवीरुद्रपूषमन्थिषु ( इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-प्रकृत्या, उभे, युगपत्, देवताद्वन्द्वे इति चानुवर्तते । अन्वयः -अनुदात्तादावुत्तरपदेऽपृथ्विीरुद्रपूषमन्थिषु देवताद्वन्द्वे उभे युगपत् प्रकृत्या न । अर्थ:-अनुदात्तादौ शब्दे उत्तरपदे पृथिवीरुद्रपूषमन्थिवर्जिते देवताद्वन्द्वे समासे उभे पूर्वपद-उत्तरपदे प्रकृतिस्वरे न भवतः । उदा०-इन्द्रश्च अग्निश्च इति इन्द्राग्नी । इन्द्रवायू । आर्यभाषाः अर्थ- (अनुदात्तौ ) अनुदात्तादि शब्द (उत्तरपदे) उत्तरपद होने पर ( अपृथिवीरुद्रपूषमन्थिषु) पृथिवी, रुद्र, पूषा और मन्थी से भिन्न (देवताद्वन्द्वे) देवतावाची द्वन्द्वसमास में (उभे) दोनों पूर्वपद और उत्तरपद ( युगपत्) एक साथ (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से (न) नहीं रहते हैं। देवता । उदा० - इन्द्राग्नी । इन्द्र और अग्नि देवता । इन्द्रवायू । इन्द्र और वायु सिद्धि-इन्द्राग्नी। यहां इन्द्र और अग्नि शब्दों का 'चार्थे द्वन्द्व : ' (२/२/२९) से इतरेतरयोग द्वन्द्वसमास है। इस सूत्र से देवतावाची द्वन्द्वसमास में पूर्व सूत्र से प्राप्त पूर्वपद और उत्तरपद के युगपत् प्रकृतिस्वर का प्रतिषेध होता है। अग्नि शब्द में 'अगि
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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