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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम् स०-ग्रहिश्च ज्याश्च वयिश्च व्यधिश्च वष्टिश्च विचतिश्च वृश्चतिश्च पृच्छतिश्च भृज्जतिश्च ते ग्रहि० भृज्जतय:, तेषाम् ग्रहि० भृज्जतीनाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु० - धातो:, सम्प्रसारणम्, किति इति चानुवर्तते । अन्वयः-ग्रहि०भृज्जतीनां धातूनां ङिति किति च सम्प्रसारणम् । अर्थ:-ग्रहि-आदीनां धातूनां ङिति किति च प्रत्यये परतः सम्प्रसारणं भवति । उदाहरणम् १८ धातु (१) ग्रहिः (२) ज्या: (३) वयि: (४) व्यधि: (५) वष्टि (६) विचति: कित् गृहीतः, गृहीतवान् ( ग्रहण किया ) जीन, जीनवान् ( वृद्ध होगया ) ऊयतुः, ऊयु. उन दोनों ने / उन सबने कपड़ा बुना । विद्ध:, विद्धवान् ( ताडन किया) उशितः, उशितवान् ( कामना की) विचित:, विचितवान् ( ठग लिया) (७) वृश्चति: वृक्ण:, वृक्णवान् (छेदन किया) (८) पृच्छति: पृष्टः, पृष्टवान् ( जिज्ञासा की ) ङित् गृह्णाति, जरीगृह्यते । ( ग्रहण करता है, पुन: पुन: ग्रहण करता है ) । जिनाति जेजीयते । (वृद्ध होता है. अधिक (९) भृज्जति भृष्टः भृष्टवान् ( पकाया, भूना ) वृद्ध होता है)। विध्यति, वेविध्यते (ताडन करता है, पुन: पुन:- ताडन करता है ) । उष्ट, उशन्ति ( वेदानों / वे सब कामना करते हैं) । विचति, वेविच्यते ( ठगता है, पुनः पुनः ठगता है) । वृश्चति वरीवृश्च्यते ( काटता है. पुन: पुन: काटता है)। पृच्छति, परीपृच्छ्यते ( पूछता है. पुन: पुन: पूछता है)। भृज्जति, बरीभृज्यते ( पकाता है. पुन: पुन: पकाता है. भूनता है ) ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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